आर्यो को विदेशी कहने वालो महात्मा बुद्ध ने तो स्वयं को आर्य जाती में उत्पन्न बताया है , तो फिर उनका देशीकरण कैसे हो गया ? अब वही रटा रटाया हुआ वाक्य मत बोलना कि ये भी ब्राम्हणों ने ही लिखा है -
ययोहं भगिनि! अरियाय जातिया जातो,
नाभिजानामि सच्चिच्च पाण जीविता वोरोपेता।
तेन सच्चेन सोत्थि ते होतु सोत्थि गबभस्साती।
दैनिक सुत्तपठन / पृष्ट स. 134
अर्थात - बुद्ध ने कहा ,.... बहिन ! जब से मैने आर्य जाति में जन्म लिया है तब से मैं जानबूझकर जीव् हिंसा करने की बात नही जनता । उस सत्य वचन से तेरा कल्याण हो और तेरे गर्भ का भी कल्याण हो ।'
मित्रो प्रस्तुत प्रसंग दैनिक सुत्तपठन नामक पुस्तक के अंगुलिमाल परित् से लिया गया है जिसके लेखक डा. भदन्त ज्ञानरत्न महाथेरो जी है।
इस सन्दर्भ में एक कथा श्रवण कीजिये
एक बार जब भंते अंगुलिमाल प्रातः सामान्य पिण्डपात ( भिक्षाटन के लिए जा रहे थे तो एक गांव में उन्हों ने एक घर से प्रसव पीड़ा से पीड़ित एक महिला की चीत्कार सुनी उसकी पीड़ा से उनका मन उद्वेलित हो उठा और वो भागे भागे बुद्ध की सरन में गए और सारा वृतांत कह सुनाया और उक्त महिला को प्रसव वेदना से मुक्त कराने का भगवान् बुद्ध से विनय किया ।
तब भगवान बुद्ध ने उन्हें तुरंत अपने धम्म सन्देश के साथ महिला के घर जाने को कहा और अपने धम्म बल के सत्य प्रभाव से उस महिला को प्रसव वेदना से मुक्ति दिलाने का अश्वासन दिया - जिसके फल स्वरूप उक्त महिला ने सामान्य प्रसव किया।
तभी से बौद्ध धम्म में इस सूत का पाठ सामान्य पीड़ा रहित प्रसव के लिए तैयार महिलाओ की पीड़ा को दूर करने के निमित्त किया जाने लगा।
उपरोक्त प्रसंग के साथ मुझे अपनी बात रखने की आवश्यकता इस लिए भी पड़ी की आज कल के तथाकथित मूलनिवासी नवबोद्ध टाइप लोगो ने समाज में व्यभिचार और दुष्प्रचार की गन्दगी मचा रक्खी है बिना बुद्ध को जाने समझे उनके संदेशो का अध्ययन किये मेंढक की तरह टर्र टर्र करते हुवे स्वयं को बौद्ध और बुद्ध के संदेशो का वाहक कहते हुवे छाती फुलाते है। इसी क्रम में इन्होंने समाज में दो दुष्प्रचार बड़ी तेजी से फैलाये की आर्य एक जाती थी और वो यूरेशिया से आये थे ।
अक्ल से पैदलो आर्य कोई जाति नहीं बल्कि श्रेष्ठ मनुष्य को आर्य कहा जाता था ।
गधो अंग्रेजो के लिखे इतिहास की लीद ही ढोते रहोगे क्या ?
-विश्वजीत सिंह अनन्त
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