Saturday, August 20, 2016

संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से

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*नेहरु ने क्यों किया था बैन इस गीत को : संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से।*


54 वर्ष पूर्व (1958) महान राष्ट्रभक्त कवि प्रदीप ने खरे शब्दों में सीधी चेतावनी देते हुए इस अमर गीत की रचना की थी. तत्कालीन नेहरु सरकार को यह चेतावनी रास नहीं आयी थी. अतः गीत पर प्रतिबंध लगा दिया गया था.
1965 में पाक के नापाक हमले से आँखें खुली तो गीत से भी प्रतिबन्ध हटा था. सुनिए और सोचिये की आज भी कितना प्रासंगिक है यह गीत.
इसे फैलाइए… इस उम्मीद को… इस मुहब्बत को….. इस बेबाक़ी को…! –
फिल्म : तलाक (1958)
गायक : मन्ना डे
बिगुल बज रहा आजादी का, गगन गूंजता नारों से
मिला रही है आज हिंद की मिट्टी नजर सितारों से
एक बात कहनी है लेकिन, आज देश के प्यारो से
जनता से, नेताओ से, फौजों की खड़ी कतारों से
कहनी है इक बात हमें इस देश के पहरोदारों से
संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से
झांक रहे हैं अपने दुश्मन अपनी ही दीवारों से
संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से
ए भारत माता के बेटों, सुनो समय की बोली को
फैलाती जो फूट यहाँ पर, दूर करो उस टोली को
कभी न जलने देना फिर से, भेद भाव की होली को
जो गांधी को चीर गयी थी, याद करो उस गोली को
सारी बस्ती जल जाती है, मुट्ठी भर अंगारों से
संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से
जागो तुमको बापू की जागीर की रक्षा करनी है
जागो लाखों लोगों की तक़दीर की रक्षा करनी है
अभी बनी है जो उस तस्वीर की रक्षा करनी है
होशियार तुमको अपने, कश्मीर की रक्षा करनी है
आती है आवाज यही, मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों से
संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से
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