Friday, May 18, 2018

निर्भयता की प्रतिमूर्ती स्वामी श्रद्धानंद

23 दिसम्बर का दिन प्रेरणा देने का है क्योंकि इस दिन धर्म के लिए बलिदान हुये युग प्रवर्तक स्वामी श्रद्धानंद जी,
स्वामी श्रद्धानंद जिन्होंने अपनी निश्छल प्रवृत्ति के चलते कालनेमिवादियों गोपाल कृष्ण गोखले आदि द्वारा रचे गये मायाजाल से अनभिज्ञ होने के कारण मोहनदास करमचंद गांधी को पूरी दुनिया में महात्मा की उपाधि देकर पहचान दिला दी थी। उन स्वामी श्रद्धानंद जी का बलिदान दिवस (२३ दिसम्बर १९२६)है, कितने लोगों को पता है।
अफ्रीका के सत्याग्रह आंदोलन के लिये गुरूकुल, कांगडी के ब्रह्मचारियों ने भोजन में दूध बंद कर, एक बांध पर मजदूरी द्वारा 1500 रू इकठठ्े कर अफ्रीका ऐसे समय दिये, जब गोखले ने बताया कि आंदोलन का काम धन की कमी के कारण अटक रहा था। यह बात अलग है कि भारत से जो धन सत्याग्रह आंदोलन के नाम पर अफ्रीका ले जाया गया, वो आन्दोलन में लगा था अथवा नहीं एक संदेहस्पद विषय हैं। क्योंकि मोहनदास गांधी तो अफ्रीका में ब्रिटिशों की खुलकर सहायता कर रहे थें, दक्षिणी अफ्रीका के जुलू आंदोलन को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से स्वयंसेवक बने, और बाद में उन्होंने ब्रिटिशों की और से बोअर युद्ध में भी सक्रीय भाग लिया था। 1916 में गांधी जी जब अफ्रीका से भारत आये तो कालनेमिवादी नीति के चलते अपने प्रभाव जमाने के लिए स्वामी श्रद्धानंद जी की कुटिया में श्रद्धा व आदर से स्वामी श्रद्धानंद जी के पैर छुये, परिचय दिया- मैं आपका छोटा भाई, मोहनदास करमचंद गांधी। निश्छल स्वामी जी ने उनकी मीडिया प्रचारित योग्यता व तत्कालीन व्यवहार को देखकर गांधी को ‘‘महात्मा’’ कहकर गले लगाया। इसके बाद से गांधी महात्मा के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
मैकाले की शिक्षा पद्धति के कारण जब लोग गुरूकुल की बात करने पर ठहाके लगाकर हंसते थे, तब सन् १८६८ में गुरूकुल खोलकर शिक्षा देने के लिए १८ महीने तक सभी काम छोडक़र , बिना घर जाये ४० हजार रूपये इकठठ्े करने वाले जालंधर के जाने माने वकील  ‘‘लाला मुंशीराम’’ अर्थात स्वामी श्रद्धानंद ने गुरूकुल परंपरा शुरू कर हिन्दू समाज को जाति-पाति, ऊँ च-नीच , छुआछूत धर्मान्तरण रोककर समरसता, समानता तथा घर वापिसी कर (पुन: हिन्दू बनाकर) हिन्दू समाज को संगठित किया। गुरूकुल शुरू करने के लिए अपने दोनों बच्चों के साथ अपने १२ से १५ मित्रों के बच्चों को गुरूकुल में पढ़ाकर हिन्दुत्व को बचाने की शुरूआत की। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने मातृभाषा के द्वारा शिक्षा देने के महत्व को समझा। कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग के प्रधान मि. सैडलर ने स्वीकार किया,  कि मातृभाषा में शिक्षा देने के परीक्षण मे गुरूकुल को अपार सफलता मिली। मित्र रेग्जे मैकडानल जो इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री भी रहे, उन्होंने लिखा है कि भारत में जिन्होंने राजद्रोह के बारे में पढ़ा है, उन्होंने गुरूकुल का नाम अवश्य सुना होगा।
न्यूस्टेटस मैन ने १९१४ में पत्र लिखा कि गुरूकुल की सबसे बड़ी विशेषता, जाति पाति का भेदभाव दूर कर दिया। सात वर्ष की आयु का बालक पच्चीस वर्ष तक की आयु में देश के पूरे सेवक बन जाते हैं। गुरूकुल के माध्यम से जाति-पाति धुआछूत के कोढ़ को दूर कर हिन्दू समाज को समान भाव से स्वामी श्रद्धानंद जी ने खड़ा कर दिया। इसी कारण उन्होंने अपने दोनों बेटों तथा बेटी का विवाह समाज के विरोध के बाद भी अन्तर्जातिय ही किया।
बेटी एक दिन स्कूल से घर आती है तो गीत गाती है-
तू तो ईसा-ईसा बोल, तेरा क्या लगेगा मोल।
ईसा मेरा रमैया, ईसा मेरा कृष्ण कन्हैया।।
स्वामी श्रद्धानंद ने उठी समय धर्म अनुकूल शिक्षा का संकल्प लेकर, सन् १८९० में जालंधर में ‘‘कन्या महाविद्यालय’’ शुरू किया। हिन्दी प्रांतों में स्त्री शिक्षा का बहुत बड़ा स्त्रोत यही शिक्षा संस्थान रहा है।
पंजाब की जिस भूमि में पानीपथ के तीन युद्ध पठान, मुगलों के लगातार आक्रमण ने जिस समाज को सुदृढ़ व संघर्षशील तो बनाया किन्तु विद्यार्थियों के साथ रहने के कारण हिन्दू संस्कृति व सभ्यता को भूल गया। इसी कारण अंग्रेजों ने पंजाबियों को अपने साथ मिलाकर रखने का सतत् प्रयत्न किया। १८५७ के संग्राम में पंजाब की सेना ने अंग्रेजों का साथ दिया। अंग्रेजों ने बड़ी योजना से इस समाज में फैशन परस्ती, अंग्रेजियत तथा ईसाईयत को बढ़ावा देते रहे तथा नौकरी देकर अपने राज्य को मजबूत बनाया।
स्वामी श्रद्धानंद जी ने समझ लिया कि, बिना भाषा प्रचार के धर्म प्रचार नहीं तो सकता क्योंकि हिन्दू धर्म की सभी पुस्तकें हिन्दी तथा संस्कृत में है। इसी कारण जालंधर अपने निवास स्थान से प्रचार आरंभ किया। अपनी ससुराल तथा उच्च पदस्थ तथा प्रसिद्ध व्यक्ति होने पर भी स्वामी श्रद्धानंद ने वर्षों तक एक तारा बजाकर प्रात काल शहर में भजन व दोहे गाते थे। उन्हें भिखारी समझकर कुछ देविया अन्न वस्त्र दान देती, तो उन्हें लाकर आर्य समाज मंदिर में जमा करा देते थे।
कोकीनाड़ा के कांग्रेस अधिवेश में मौलाना मोहम्मद अली ने कहा कि- अछूत तो लावारिस माल है, इन्हें हिन्दू-मुसलमान को आधा-आधा  बांट लेना चाहिए। इससे स्वामी जी के मन को गहरी चोट लगी और कांग्रेस से मतभेद हो गया। हिन्दुत्व की रक्षा करना उनका अटल ध्येय था। इसी कारण हिन्दू संगठन का कार्य आरंभ किया। उन्होंने देखा कि दिल्ली के आसपास गांव में ईसाई प्रचारक दलित बंधुओं को अहिन्दू बनाने का कार्य कर रहे है। तब उन्होंने ‘‘दलितोंद्वार सभा’’ की स्थापना कर अछूतों को नागरिक अधिकार दिलाने का कार्य आरंभ किया।
ख्वाजा हसन निजामी नामक मुसलमान लेखक ने ‘‘दार ए इस्लाम’’ नामक पुस्तक में हिन्दुओं को मुसलमान बना हिन्दू विधवाओं को बहलाकर निकाह करने की युक्तियों का वर्णन किया था। यह जानकारी समाचार पत्रों के माध्यम से हिन्दू समाज को प्राप्त होने पर सनसनी फैल गई। स्वामी जी ने ‘‘भारतीय शुद्धि सभा’’ की स्थापना गैर हिन्दुओं को शुद्ध कर घर वापिसी का कार्य प्रारंभ किया।
मथुरा, आगरा, भरतपुर तथा आसपास के मलकाना राजपूत जो दबाव में मुसलमान बन गये थे। हिन्दू रस्मों को आज भी मानते थे। उनसे बातचीत कर, पुन: शुद्ध कर पांच लाख से अधिक मुस्लिमों को सम्मेलन कर घर वापिसी कर हिन्दू बनाया । इससे देश भर के हिन्दुओं में जोश व नई जागृति फैल गई। इस कारण कट्टपंथी मुसलमानों का बैर भाव भी स्वामी श्रद्धानंद जी ने बढऩे लगा।
विश्व इतिहास में स्वामी श्रद्धानंद जी ही एकमात्र ऐसे सन्यासी है, जिन्होंने मुसलमानों के बुलावे पर दिल्ली की जामा मस्जिद में मुंबर (इमाम की स्थान) पर खड़े होकर भगवा वस्त्र पहनकर ऋग्वेद का मंत्र ‘‘त्वं हिन: पिता वसो त्वं माता’’ हिन्दू मुसलमानों को समझाया। धर्म-प्रेम व उदारता की शिक्षा देता है। छोटी-छोटी बातों पर हट करना ना समझी है।
मुसलमानों के कई मतों से वे सहमत नहीं थे तथा उनका पूरी जोरदारी से खंडन करते थे। जो मुसलमान, इस्लाम छोडक़र हिन्दू धर्म में आना चाहते है, उनको स्वामी श्रद्धानंद जी ने हिन्दू भी बनाया। इसी कारण मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले गांधी आदि सेक्युलर नेता व कट्टरपंथी मुसलमान उनसे रूष्ट रहते थे तथा उन्हें नष्ट करने के प्रयास में लगे रहते थे। इन्हीं प्रयासों के चलते २३ दिसम्बर १९२६ को अब्दुल रसीद नामक मुसलमान ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। कोर्ट ने अब्दुल रसीद को फाँसी की सजा दी, जिसपर गांधी ने हत्यारे अब्दुल रसीद को अपना भाई बताया, और सरकार से उसकी सजा माफ कराने की पूरी कोशिश की थी, जो देशभक्तों के आक्रोश के चलते असफल सिद्ध हुई।
आज भी स्वामी श्रद्धानंद जी का बलिदान, उनके कार्यों को आलोकित करता हुआ एक प्रकाश किरण की तरह हमारे सामने आकर हिन्दुत्व का भाव भरकर, धर्म कार्य में लगे लाखों लोगों का मार्ग प्रशस्त कर जीवन भर कार्य करने की सतत् प्रेरणा देता है।
भारत स्वाभिमान दल उनको भावपूर्ण नमन करता हैं ।

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