माइकल जे. बीही, अमरीका के राज्य, पेन्सिलवेनिया के लीहाइ विश्वविद्यालय में जीव-रसायन के प्रोफेसर हैं।
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सन् 1996 में उन्होंने एक किताब निकाली थी जिसका नाम था, डार्विन की रहस्यमयी धारणा—विकासवाद को जीव-रसायन की चुनौती (अँग्रेज़ी)।
उनका इंटरव्यू एक विदेशी पत्रिका में छपा था. रोचक जानकारी होने के कारण यहाँ दिया है.
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प्रश्न: आपको ऐसा क्यों लगता है कि जीवन, एक कुशल दिमाग की कारीगरी है?
प्रोफेसर बीही: जब हम अलग-अलग पुरज़ों से बनी मशीन को कोई जटिल काम करते देखते हैं, तो हम यह नतीजा निकालते हैं कि उस मशीन को बनाया गया है। मिसाल के तौर पर, रोज़ इस्तेमाल होनेवाली मशीनों को ही लीजिए, जैसे घास काटनेवाली मशीन, गाड़ी या इससे भी छोटे यंत्र। मेरी सबसे मनपसंद मिसाल चूहेदानी की है। जब आप देखते हैं कि इसके अलग-अलग पुरज़ों को कैसे एक-साथ जोड़ा गया है ताकि यह चूहा पकड़ने के काम आए, तो आप यही कहेंगे कि यह अपने आप नहीं आयी बल्कि इसे बनाया गया है।
आज विज्ञान, तरक्की के उस मुकाम पर पहुँच गया है, जहाँ उसने पता लगा लिया है कि जीव का सबसे छोटा अंश, अणु कैसे काम करता है। यही नहीं, वैज्ञानिक यह जानकर दाँतों तले उँगली दबा लेते हैं कि इन जीवों में पाए जानेवाले अणु किसी जटिल मशीन से कम नहीं। मिसाल के लिए, एक जीवित कोशिका में कुछ अणु, छोटी-छोटी “लॉरियों” की तरह होते हैं, जो कोशिका के एक कोने से दूसरे कोने तक सामान ढोकर ले जाते हैं। दूसरे अणु, “साइन पोस्ट” की तरह इन “लॉरियों” को दिशा दिखाते हैं कि उन्हें बाएँ मुड़ना चाहिए या दाएँ। कुछ अणु तो कोशिकाओं से ऐसे जुड़े होते हैं, जैसे “जहाज़ के पीछे मोटर” लगा रहता है और कोशिकाओं को तरल पदार्थों में सफर करने में मदद देते हैं। अगर लोग यही जटिल व्यवस्था किसी दूसरी चीज़ में देखेंगे, तो वे इसी नतीजे पर पहुँचेंगे हैं कि उसे रचा गया है। तो फिर अणुओं के बारे में भी यही नतीजा निकालना सही होगा, भले ही डार्विन का सिद्धांत यह दावा क्यों न करे कि इन अणुओं का विकास हुआ था। जब भी हम किसी चीज़ में जटिल व्यवस्था देखते हैं, तो यही कहते हैं कि इसके पीछे किसी कुशल कारीगर का हाथ है। इसलिए हमारा यह कहना भी वाजिब है कि अणुओं की व्यवस्था को किसी बुद्धिमान हस्ती ने बनाया है।
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प्रश्न: : आपकी राय में, आपके ज़्यादातर साथी इस बात से सहमत क्यों
नहीं हैं कि जीवन, एक कुशल दिमाग की कारीगरी है?
प्रोफेसर बीही: अगर वे मानते कि जीवन, एक कुशल दिमाग की कारीगरी है, तो उन्हें यह भी मानना पड़ता कि यह दिमाग किसी ऐसी हस्ती का है, जो विज्ञान के सिद्धांतों और कुदरत से भी बढ़कर है। और यही बात कबूल करने से कई लोग घबराते हैं। लेकिन मैंने हमेशा यही सीखा है कि वैज्ञानिकों को पहले से कोई धारणा नहीं बना लेनी चाहिए, बल्कि सबूत जो दिखाता है वही मानना चाहिए। मेरी नज़र में ऐसे लोग बुज़दिल हैं जो ठोस सबूत मिलने पर भी, गलत सिद्धांत को छोड़ने से डरते हैं। और वह भी बस इसलिए कि अगर वे मेरी बातों से सहमत होंगे, तो उन्हें उस बुद्धिमान हस्ती पर भी विश्वास करना पड़ेगा।
सजग होइए!: आप ऐसे आलोचकों को क्या जवाब देते हैं जो दावा करते हैं कि एक बुद्धिमान कारीगर पर विश्वास करना, अज्ञानता को बढ़ावा देना है?
प्रोफेसर बीही: हम अज्ञानता की वजह से एक बुद्धिमान कारीगर पर विश्वास नहीं करते। हम इस नतीजे पर इसलिए पहुँचे हैं क्योंकि हम इस बारे में जानते हैं, इसलिए नहीं कि हम इस बारे में कुछ नहीं जानते। डेढ़ सौ साल पहले जब डार्विन ने अपनी किताब,दी ओरिजिन ऑफ स्पीशीज़ छापी थी, तो उस वक्त ज़िंदगी बहुत सीधी-सादी मालूम पड़ती थी। उस ज़माने के वैज्ञानिकों ने सोचा, कोशिका इतनी सरल है कि शायद यह समुद्र के कीचड़ में से निकली हो। लेकिन तब से विज्ञान ने काफी खोज की है और पता लगाया है कि कोशिका बहुत ही जटिल है, इतनी कि 21वीं सदी की कोई भी मशीन इसकी बराबरी नहीं कर सकती। कोशिका की जटिलता चीख-चीखकर यही कहती है कि इसे एक मकसद से बनाया गया है।
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प्रश्न: आप अभी-अभी अणुओं की जटिल व्यवस्था के बारे में बता रहे थे। क्या विज्ञान यह साबित कर पाया है कि प्राकृतिक चुनाव (इसका एक मतलब है, जो ताकतवर है वही संघर्ष करके ज़िंदा रहता है) से कोशिका की जटिल व्यवस्था का विकास हुआ है?
प्रोफेसर बीही: अगर आप विज्ञान के साहित्य में छानबीन करें, तो पाएँगे कि आज तक ऐसा एक भी वैज्ञानिक नहीं रहा जिसने यह समझाने का बीड़ा उठाया हो कि कैसे कोशिका की जटिल व्यवस्था का विकास हुआ है। दस साल पहले जब मेरी किताब छपकर निकली थी, तब ‘विज्ञान की राष्ट्रीय अकादमी’ और ‘विज्ञान की प्रगति के लिए अमरीकी संघ’ जैसे कई वैज्ञानिक संगठनों ने अपने सदस्यों से ज़ोरदार अपील की थी कि वे इस धारणा के खिलाफ सबूत इकट्ठा करें कि जीवन, एक कुशल दिमाग की कारीगरी है। इसके बाद भी किसी वैज्ञानिक ने कुछ नहीं किया।
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प्रश्न: : आप उन लोगों को क्या जवाब देते हैं जो कहते हैं कि पौधों या जानवरों के कुछ हिस्सों को ठीक से नहीं रचा गया है?
प्रोफेसर बीही: जब हमें यह पता नहीं रहता है कि पौधों और जानवरों में फलाँ हिस्से या अंग का क्या काम है, तो इसका यह मतलब नहीं कि वे बेकार हैं। मिसाल के लिए, उन अंगों पर गौर कीजिए जिन्हें अवशेष अंग कहा जाता था। एक ज़माना था, जब इन अंगों की वजह से यह माना जाता था कि इंसान का शरीर और दूसरे जीव ठीक से नहीं रचे गए हैं। इन अंगों में से दो हैं, अपेंडिक्स और टांसिल जिन्हें पहले बेकार समझकर, ऑपरेशन के ज़रिए हटाया जाता था। मगर फिर खोजों से पता चला कि ये अंग, शरीर में बीमारियों से लड़ने में एक अहम भूमिका निभाते हैं। तब से इन्हें अवशेष अंग मानना बंद हो गया।
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याद रखनेवाली एक और बात यह है कि कुछ जीवों में बदलाव अपने आप से होता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि इन जीवों की शुरूआत इत्तफाक से हुई थी। इसे समझने के लिए मेरी गाड़ी की मिसाल लीजिए। अगर मेरी गाड़ी को कोई नुकसान पहुँचता है या उसके टायर की हवा निकल जाती है, तो मैं यह नहीं कह सकता कि इसका कोई बनानेवाला नहीं था।
उसी तरह, इस बात में कोई तुक नहीं कि जीवन और उसमें पाए जानेवाले जटिल अणुओं का विकास हुआ था।
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अच्छा, यह बताइए, जब हमारे शरीर में चोट लगती है तो क्या होता है?
कुछ ही सेकंड में, खून बहने से रोकने के लिए पहला चरण शुरू हो जाता है, जिसमें कई सारे काम शामिल हैं। ये काम बहुत पेचीदा हैं, पर बड़ी कुशलता से होते हैं। इससे भी बढ़कर हमारे शरीर में खून के बहाव की जो व्यवस्था है, उसमें करीब 1,00,000 किलोमीटर (60,000 मील) की लंबाई की रक्त-धमनियाँ (ब्लड वेसेल्स) होती हैं। ज़रूर इससे प्लम्बिंग इंजीनियर हैरत में पड़ जाते होंगे, क्योंकि इसमें ऐसी काबिलीयत है कि चोट लगने पर जब कोई रक्त-धमनी फट जाती है, तो खून बहना खुद-ब-खुद बंद हो जाता है और वह धमनी फिर से जुड़ जाती है।
दूसरे चरण में क्या होता है?
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कुछ ही घंटों में खून बहना बंद हो जाता है और उस जगह पर सूजन-सी आने लगती है। इसमें एक-के-बाद-एक कई हैरान कर देनेवाली घटनाएँ शामिल हैं। सबसे पहले, जो रक्त-धमनियाँ खून को बहने से रोकने के लिए पहले सिकुड़ गयी थीं, अब फैलने लगती हैं, ताकि घाव वाली जगह में खून का बहाव ज़्यादा हो। इसके बाद, एक तरल पदार्थ जिसमें प्रोटीन ज़्यादा होता है, चोट वाली पूरी जगह में सूजन पैदा करता है। यह तरल पदार्थ, संक्रमण से लड़ने, ज़हर को बेअसर करने और घायल ऊतक (टिशु) को निकालने के लिए बहुत ज़रूरी है। इस तरह की सारी घटनाओं में होनेवाली हर प्रक्रिया के लिए खास किस्म के लाखों अणुओं और कोशिकाओं की ज़रूरत होती है। इनमें से कुछ घटनाएँ अगला चरण शुरू करने के लिए होती हैं, उसके बाद इनका काम खत्म हो जाता है।
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घाव भरने के अगले चरण में क्या-क्या होता है?
एक-दो दिन में ही हमारा शरीर घाव भरनेवाली चीज़ें तैयार करने लगता है, यानी वह प्रक्रिया होने लगती है, जो तीसरे चरण की शुरूआत होती है। यह चरण करीब दो हफ्ते में अपने आखिरी मुकाम पर पहुँचता है। जो कोशिकाएँ घाव के आस-पास तंतु या रेशे (फाइबर) बनाती हैं, वे चोट वाली जगह में जाती हैं और दूसरी अनगिनत कोशिकाओं को जन्म देती हैं। इसके अलावा, छोटी-छोटी नयी रक्त-धमनियाँ निकलती हैं और चोट वाली जगह की तरफ बढ़ती हैं। ये रक्त-धमनियाँ घाव ठीक होने के दौरान उस जगह से खराब पदार्थ निकालती हैं और ज़्यादा मात्रा में पोषक तत्व वहाँ पहुँचाती हैं। फिर कुछ और पेचीदा घटनाएँ होती हैं, जिनमें खास कोशिकाएँ पैदा होती हैं। ये कोशिकाएँ घाव के किनारों को एक साथ जोड़ती हैं।
बाप रे! इतने सारे काम होते हैं! घाव पूरी तरह भरने में और कितना समय लगता है?
आखिरी चरण में, जिसमें शरीर पहले जैसा आकार लेता है, महीने लग जाते हैं। जो हड्डियाँ टूट गयी थीं, उनमें पहले जैसी ताकत आती है और घाव वाली जगह पर एक नाज़ुक ऊतक (सॉफ्ट-टिशु) के आस-पास जो तंतु या रेशे थे, उनकी जगह मज़बूत तंतु या रेशे आ जाते हैं। सचमुच, घाव ठीक होना हैरान कर देनेवाला एक ऐसा प्रोग्राम है, जिसमें हर काम आपसी तालमेल से होता है।
क्या आप एक ऐसी घटना बता सकते हैं, जिसका आप पर गहरा असर हुआ?
जब मैं देखता हूँ कि कैसे शरीर अपने आप चोट ठीक कर लेता है, तो मैं हैरान रह जाता हूँ
हाँ। एक बार मैंने एक 16 साल की लड़की का इलाज किया, जिसका बड़ा खतरनाक कार एक्सीडेंट हुआ था। लड़की की हालत बहुत गंभीर थी, उसकी तिल्ली (खून को साफ करने और संचित करनेवाला पेट के पास का एक अंग) फट गयी थी, जिसकी वजह से शरीर के अंदर खून बहने लगा था। सालों पहले की बात होती, तो हम तिल्ली को ठीक करने के लिए उसका ऑपरेशन करते या उसे निकालकर फेंक देते। आज डॉक्टर ज़्यादातर इस बात पर भरोसा करते हैं कि शरीर में खुद चोट को ठीक करने की काबिलीयत है। इसलिए मैंने बस संक्रमण रोकने, खून बहने से रोकने, एनीमिया (खून की कमी) और दर्द का इलाज किया। कुछ ही हफ्तों बाद, एक जाँच से पता चला कि उसकी तिल्ली ठीक हो गयी है! जब मैं देखता हूँ कि कैसे शरीर अपने आप चोट ठीक कर लेता है, तो मैं हैरान रह जाता हूँ। इससे मुझे और भी यकीन हो गया कि हमें परमेश्वर ने रचा है।
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माइकल जे. बीही
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Wednesday, November 23, 2016
डार्विन की रहस्यमयी धारणा—विकासवाद को जीव-रसायन की चुनौती
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