हरि ॐ
एक व्याख्यान......
सनातन संस्कृति संघ
काशी में एक कर्मकांडी पंडित का आश्रम था, जिसके सामने एक जूते गाँठने वाला बैठता था। वह जूतों की मरम्मत करते समय कोई न कोई भजन अवश्य गाता था। लेकिन पंडित जी ध्यान कभी उसके भजनों की तरफ नहीं गया
एक बार पंडित जी बिमार पड़ गये और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया। उस समय उन्हें ये भजन सुनाई पडे। उन का ध्यान रोग की तरफ से हट कर भजनों की तरफ चला गया। धीरे धीरे उन्हें महसूस हुआ कि जूते गाँठने वाले का भजन सुनते सुनते उनका दर्द कम हो रहा है।
एक दिन एक शिष्य को भेज कर उन्होने उसे बुलाया और कहा, भाई तुम तो बहुत अच्छा गाते हो । मेरा रोग बडे बडे वैद्यों के इलाज से ठिक नहीं हो रहा था लेकिन तुम्हारें भजन सुन कर में ठीक होने लगा हूँ। फिर उन्होने उसे कुछ पैसे देकर कहा इसी तरह गाते रहना।↵रूपये पाकर जूते गाँठने वाला बहुत खुश हुआ । लेकिन रूपये पाने के बाद उसका मन काम काज से हटने लगा। वह भजन गाना भी भूल गया। दिन रात यही सोचने लगा कि रूपये कहाँ सम्भाल कर रखे। धिरे धिरे उसकी दूकानदारी भी ठप होने लगी। उधर भजन बंद होने से पंडित जी का ध्यान फिर रोग की तरफ जाने लगा। और हालत बिगडने लगी।
एक दिन अचानक जूते गाँठने वाला पंडित जी के पास आया और बोला, आप अपने पैसे रख लिजिये।
पंडित ने कारण पूछा , जूते गाँठने वाला बोला , हुआ तो कुछ नहीं लेकिन इस रूपये ने मेरा जीना हराम कर दिया इसे और अपने पास रखुंगा तो मैं भी बिस्तर पकड लूंगा। इसे सम्भालने में मेरा काम और भजन दोनों छूट गये।
मैं समझ गया कि अपनी मेहनत की कमाई में जो सुख हैं, वह पराये धन में नहीं है। इस धन ने तो परमात्मा से भी नाता तुडवा दिया।
आज भी सरकार से कुछ पैसे ,अनाज ,दाल आदि वस्तुऐं मिलने से गरीब कर्तव्य विमुख व आलस्यवान् होने लगा है।
-विश्वजीत सिंह अनन्त
राष्ट्रीय अध्यक्ष
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