सफल, सुरक्षित व समृद्ध जीवन हेतु धर्म शिक्षा
| ज्ञानवर्धक प्रश्नोत्तरी ||
प्रश्न - क्या ईश्वर है? कौन है वह? क्या रुप है उसका? क्या वह स्त्री है या पुरुष?
उत्तर - कारण के बिना कार्य नहीं। यह संसार उस कारण के अस्तित्व का प्रमाण है। तुम हो इसलिए वह भी है उस महान कारण को ही अध्यात्म में ईश्वर कहा गया है। वह न स्त्री है न पुरुष और न उभयलिंगी।
प्रश्न - उसका स्वरूप क्या है?
उत्तर - वह सत्-चित्-आनन्द है, वह अनाकार ही सभी रूपों में अपने आप को स्वयं को व्यक्त करता है |
प्रश्न - वह अनाकार स्वयं करता क्या है?
उत्तर - वह ईश्वर संसार की रचना, पालन और संहार करता है।
प्रश्न - यदि ईश्वर ने संसार की रचना की तो फिर ईश्वर की रचना किसने की?
उत्तर - वह अजन्मा अमृत और अकारण है |
प्रश्न - भगवान कौन होता है?
उत्तर - भगवान शब्द संस्कृत के भगवत शब्द से बना है। वह व्यक्ति जो पूर्णत: मोक्ष को प्राप्त हो चुका है और जो जन्म मरण के चक्र से मुक्त होकर कहीं भी जन्म लेकर कुछ भी करने की क्षमता रखता है, उसे भगवान कहते है | भगवान को ईश्वरतुल्य माना गया है इसीलिए इस शब्द को ईश्वर, परमात्मा या परमेश्वर के रूप में भी उपयोग किया जाता है, लेकिन यह उचित नहीं है। जो आत्मा पांचों इंद्रियो और पंचतत्व के जाल से मुक्त हो गई है वही भगवान
कही गई है। इसी तरह जब कोई स्त्री मुक्त होती है तो उसे भगवती कहते हैं। भगवती शब्द का उपयोग माँ दुर्गा के लिए भी किया जाता है। इसे ही भगवान कहा गया है।
भगवान सन्धि विच्छेद: भ्+अ+ग्+अ+व्+आ+न्+अ
भ = भूमि
अ = अग्नि
ग = गगन
व = वायु
न = नीर
भगवान पंच तत्वों से बना है।
भगवान्- ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य- ये छ: गुण अपनी समग्रता में जिस गण में हों उसे 'भग' कहते हैं। उसे अपने में धारण करने से वे भगवान् हैं। यह भी कि उत्पत्ति, प्रलय, प्राणियों के पूर्व व उत्तर जन्म, विद्या और अविद्या को एक साथ जानने वाले को भी भगवान कहते हैं।
प्रश्न - धर्म क्या है?
उत्तर - जीव मात्र के कल्याण भाव से सत्य पर आधारित ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपात रहित न्याय सर्वहित करना है । जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिये यही एक धर्म मानने योग्य है; वह सदा से चला आया है, उसको सनातन धर्म कहते हैं ।
प्रश्न - अधर्म क्या है?
उत्तर - जिसका स्वरुप ईश्वर की आज्ञा को छोङकर और पक्षपात सहित अन्यायी होके मत, पंथ, सम्प्रदायों में उलझकर बिना परीक्षा करके अपना ही हित करना है । जिसमें अविद्या , हठ , अभिमान, क्रूरतादि दोषयुक्त होने के कारण वेदविद्या से विरुद्ध है, इससे यह अधर्म कहलाता है, यह अधर्म सब मनुष्यों को छोङने के योग्य है |
प्रश्न- धर्म के दस लक्षण कौन- कौन से है?
उत्तर - धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ||
अर्थात धैर्य (किसी कार्य को तब तक धैर्य पूर्वक करते रहना जब तक की उसमें सफलता न मिल जाये), क्षमा (यदि किसी सज्जन, श्रेष्ठ व्यक्ति से भूलवश कोई गलती हो जाये तो उसे क्षमा करना, लेकिन जो दुष्ट-अधर्मी या पापी हो उसे किसी भी स्थिति में क्षमा न करें, ऐसे दुरात्मा को क्षमा करने वाला स्वयं दुख उठाता है), दम (बुरी इच्छाओं व दुष्टों का दमन), चोरी न करना, शौच (अन्दर बाहर की स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, विवेक, विद्या, सत्य और क्रोध न करना (अनावश्यक क्रोध न करें, लेकिन जब अत्याधिक आवश्यकता हो तो क्रोध अवश्य करें, यह धर्म हैं। शक्तिशाली पितामह भीष्म ने पाण्डवों द्वारा द्रोपदी को जुअे पर लगाये जाने पर भी क्रोध नहीं किया जो उनके जीवन का सबसे बड़ा पाप सिद्ध हुआ, दूसरी तरफ जटायु ने अशक्त होते हुए भी माता सीता का अपहरण करने वाले राक्षसराज रावण का प्रतिकार किया जो उनके जीवन का सबसे बड़ा पुण्य था) ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।
क्रमश: जारी.....
निवेदक: भारत स्वाभिमान दल
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