ॐ किसी देश के लोगों से उनकी भाषा को छीनने और उसे हमेशा-हमेशा के लिए खत्म करने के लिए सांस्कृतिक साम्राज्यवाद (Cultural Imperialism) 'Process of Contra-Gardualism' का इस्तेमाल करता है यानी बाहर पता ही नहीं चले की भाषा को 'सायास' बदला जा रहा है। बल्कि "बोलने वालों" को लगे की यह तो एक ऐतिहासिक प्रकिया है। बहरहाल, इसका एक ही तरीक़ा है कि आप हिंदी के मूल रोज़मर्रा शब्दों को हटाकर उनकी जगह अंग्रेज़ी के उन शब्दों को छापना शुरू कर दो जो बोलचाल की भाषा में Shared-Vocabulary की श्रेणी में आते हैं। जैसे की ट्रेन, पोस्ट कार्ड, मोटर, रेडियो, टेलीविज़न, आदि। इसके बाद धीरे-धीरे इस शेयर्ड वोकैबुलरी में रोज़-रोज़ अंग्रेज़ी के नए शब्दों को शामिल करते जाइये। जैसे माता-पिता की जगह छापिये पेरेंट्स, छात्र-छात्राओं की स्टूडेंट्स, विश्वविद्यालय की जगह यूनिवर्सिटी, रविवार की जग संडे, यातायात की जगह ट्रैफिक आदि। आखिरकार उनकी तादाद इतनी बढ़ा दीजिये की मूल भाषा के सिर्फ कारक भर रह जायें। क्योंकि कुल मिलाकर रोज़मर्रा की बोलचाल में बस हज़ार-डेढ़ हज़ार शब्द ही तो होते हैं। यह चरण 'Process of Dislocation' कहा जाता है यानी की हिंदी के शब्दों को धीरे-धीरे बोलचाल के जीवन से उखाड़ते जाने का काम।
ऐसा करने से इसके बाद भाषा के भीतर धीरे-धीरे 'Snowball Theory' काम करना शुरू कर देगी यानी बर्फ़ के दो गोलों को एक-दुसरे के नज़दीक़ रख दीजिए, कुछ देर बाद वे घुल-मिलकर इतना जुड़ जाएंगे की उनको एक-दुसरे से अलग करना संभव नहीं हो सकेगा। यह थियरी (रणनीति) भाषा में सफलता के साथ काम करेगी और अंग्रेज़ी के शब्द हिंदी से ऐसे जुड़ जाएंगे की उनको अलग करना मुश्किल होगा। यहाँ तक की वे मूल शब्दों से कहीं ज्यादा अपनी उपस्थिति का दावा करेंगे।
इसके बाद शब्दों के बजाये पूरे के पूरे अंग्रेज़ी के वाक्यांश छापना और बोलना शुरू कर दीजिए। यानी 'Increase the chunk of English phrases.' मसलन, आउट ओव रीच/ बियॉन्ड डाउट/ नन अदर देन/ आदि। कुछ समय के बाद लोग हिंदी के उन शब्दों को बोलना ही भूल जाएंगे। इस रणनीति के तहत बनते भाषा रूप की एक मिसाल एक अख़बार से उठाकर दे रहा हूँ।
"मॉर्निंग आवर्स के ट्रैफिक को देखते हुए, डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन ने जो ट्रैफिक रूल्स अपने ढंग से इम्प्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफर्ट्स किये हैं, वो रोड को प्रोन टू एक्सीडेंट बना रहे हैं। क्योंकि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न लेकर यूनिवर्सिटी की रोड को ब्लॉक कर देते हैं। इन प्रोब्लेम्स का इमीडियेट सोल्युशन मस्ट है।"
इस तरह की भाषा के लगातार पाँच-दस सालों तक प्रिंट माध्यम से पढ़ते रहने के बाद होगा यह की अख़बार के खासकर युवा पाठक की स्थिति यह होगी की अगर उसे कहा जाये की वह हिंदी में बोले तो वह गूंगा हो जायेगा। उनकी इस युक्ति को वे कहते हैं 'Illusion of Smooth Transition'. यानी हिंदी की जगह अँग्रेज़ी को निर्विघ्न ढंग से स्थापित करने को कामयाब धोके का आख़री और अचूक पायदान-हिंदी का हिंग्लिश में बदल जाना। अब यह हिंदी में हो रहा है। अख़बारों, फिल्मों से लेकर दिमाग़ी गुलामों की नयी नस्ल (जिनमें ज्यादातर नौजवान हैं) अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी में इसी हिंग्लिश का जाप करती नज़र आती है। आप इस दिखावटी-बनावटी अंग्रेज़ियत के दिमाग़ी गुलाम तबके के हाथ में अरुंधति रॉय या चोम्स्की की कोई किताब देकर देख लीजिए, मेरा दावा है इन "काले अंग्रेजों" की समझ में कुछ नहीं आएगा। हक़ीक़त यह है कि अंग्रेज़ी बोलने में फख़्र महसूस करने वाला यह वर्ग अपनी हीन-भावना को छुपाने के लिए अंग्रेज़ी (या हिंग्लिश) की शरण लेता है। भारत में ऐसे जोकर बहुत मिल जाते हैं जो अपने ही देश के लोगों से विदेशी भाषा (अंग्रेज़ी) में बात करके अपने मानसिक रूप से दिवालिया होने का सबूत फराहम करते हैं।
एक अच्छी-भली भाषा से उसके रोज़मर्रा के शब्दों को हटाने और उसके व्याकरण को छीन कर उसे बोली में बदल दिए जाने को क्रियोल कहले हैं। यानी हिंदी का हिंग्लिश बनाना एक तरह से उसका क्रियोलीकरण करना है। और Contra-Gardualism के हथकंडों से बाद में उसे डि-क्रियोल किया जायेगा। डि-क्रियोल करने का अर्थ है उसे पूरी तरह अंग्रेज़ी के द्वारा विस्थापित कर देना।
इसके बाद आख़री चरण कहलाता है-Final Assault. हिंदी को नागरी लिपि के बजाये रोमन लिपि में छापने की शुरुआत करना यानी हिंदी पर आख़री प्राण-घातक हमला। बस हिंदी की हो गयी अंत्येष्टि। क्योंकि हिंदी को रोमन में लिख-पढ़ कर बड़ी होने वाली पीढ़ी के लिये वह बिलकुल अपठनीय हो जायेगी। इसी तरकीब से गुयाना में जहाँ 43 प्रतिशत लोग हिंदी बोलते थे, को फ्रेंच द्वारा डि-क्रियोल कर दिया गया और अब वह देवनागरी की जगह रोमन लिपि को चला दिया गया। यही काम त्रिनिदाद में इसी साज़िश के जरिये किया गया।
यह Education For All का नारा दरअसल "English For All" ही है।
पिछले कुछ साल पहले अमरीका में गरीब मुल्कों की आँखें खोल देने वाली एक किताब छप कर आयी थी, जिसे न लिखने के लिए सी.आई.ए. ने एक मिलियन डॉलर रिश्वत की पेशकश की थी-लेकिन लेखक ने उनके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और हिम्मत जुटाकर प्रायश्चित के रूप में लिख ही डाली यह किताब: "Confession of An Economic Hitman".दुनिया के महानतम दिमागों में से एक प्रोफेसर नोम चोम्स्की और डेविड सी. कोर्टन जैसे बुद्धिजीवियों ने लेखक जॉन पर्किन्स को उत्साहित करते हुए कहा था कि इसका प्रकाशन बाक़ी दुनिया का तो हिट करेगा ही, बल्कि इससे अमरीका का भी हित ही होगा। इसलिए इसका छापना जरूरी है।
बहरहाल, पुस्तक के लेखक जॉन पर्किन्स ने उसमें विस्तार से बताया है कि किस तरह बहुराष्ट्रीय निगमों (Corporations) के जरिये अमरीका ने तीसरी दुनिया के गरीब देशों आर्थिक ढाँचे को तहस-नहस कर दिया जिसके नतीजे में वे सांस्कृतिक-सामाजिक स्तर पर भी तबाह हो गए। अब यह काम पूंजीपति वर्ग का दलाल और बिकाऊ मीडिया और उससे दस कदम आगे हिंदी के अख़बार कर रहे हैं।
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