चिकित्सा और सावधानिया - राजीव दीक्षित
Rajiv Dixit
मित्रो बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी पूरा पढ़िये ।
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आयुर्वेद के अनुसार हमारे शरीर में जितने भी रोग होते है वो त्रिदोष: वात, पित्त, कफ के बिगड़ने से होते है । वैसे तो आज की तारीक मे
वात,पित कफ को पूर्ण रूप से समझना सामान्य वुद्धि के व्यक्ति के बस की बात नहीं है । लेकिन आप थोड़ा समझना चाहते है तो इतना जान लीजिये । सिर से लेकर छाती के मध्य भाग तक जितने रोग होते है वो कफ के बिगड़ने के कारण होते है ,और छाती के मध्य से पेट खत्म होने तक जितने रोग होते है तो पित्त के बिगड़ने से होते है और उसके नीचे तक जितने रोग होते है वो वात (वायु )के बिगड़ने से होते है । लेकिन कई बार
गैस होने से सिरदर्द होता है तब ये वात बिगड़ने से माना जाएगा ।
( खैर ये थोड़ा कठिन विषय है )
जैसे जुकाम होना ,छींके आना ,खांसी होना
ये कफ बिगड़ने के रोग है
तो ऐसे रोगो मे आयुवेद मे तुलसी लेने को कहा जाता है क्यों कि तुलसी कफ नाशक है ,
ऐसे ही पित्त के रोगो के लिए जीरे का
पानी लेने को कहा जाता है क्योंकि जीरा पित नाशक है ।
इसी तरह मेथी को वात नाशक कहा जाता है लेकिन मेथी ज्यादा लेने से ये वात तो संतुलित हो
जाता है लेकिन ये पित को बढ़ा देती है ।
महाऋषि वागभट जी कहते है की आयुर्वेद ज़्यादातर ओषधियाँ वात ,पित या कफ नाशक
होती है लेकिन त्रिफला ही एक मात्र ऐसे ओषधि है जो वात,पित ,कफ तीनों को एक साथ संतुलित करती है
वागभट जी इस त्रिफला की इतनी प्रशंसा करते है की उन्होने आयुर्वेद मे 150 से अधिक सूत्र मात्र त्रिफला पर ही लिखे है । की त्रिफला को इसके साथ लेंगे तो ये लाभ होगा त्रिफला को उसके साथ लेंगे तो ये लाभ होगा ।
त्रिफला का अर्थ क्या है ?
त्रिफला = तीन फल
कौन से तीन फल ??
1) आंवला
2) बहेडा
3) हरड़
इन तीनों से बनता है त्रिफला चूर्ण ।
वागभट जी त्रिफला चूर्ण के बारे मे और बताते है कि
त्रिफला चूर्ण मे तीनों फलो की मात्रा कभी समान नहीं होनी चाहिए । ये अधिक उपयोगी नहीं होता (आज कल बाज़ारों मे मिलने वाले लगभग सभी त्रिफला चूर्ण मे तीनों फलों की मात्रा बराबर होती है )
त्रिफला चूर्ण हमेशा 1:2:3 की मात्रा में ही बनाना चाहिए
अर्थात मान लो आपको 200 ग्राम त्रिफला चूर्ण बनाना है तो उसमे
हरड चूर्ण होना चाहिए = 33.33 ग्राम
बहेडा चूर्ण होना चाहिए= 66.66 ग्राम
और आमला चूर्ण चाहिए 99.99 ग्राम
तो इन तीनों को मिलाने से बनेगा सम्पूर्ण आयुर्वेद मे बताई हुई विधि का त्रिफला चूर्ण । जो की शरीर के लिए बहुत ही लाभकारी है ।
वागभट जी कहते है त्रिफला का सेवन अलग-अलग समय करने से भिन्न-भिन्न परिणाम आते है ।
रात को जो आप त्रिफला चूर्ण लेंगे तो वो रेचक है अर्थात (सफाई करने वाला) पेट की सफाई करने वाला ,बड़ी आंत की सफाई करने वाला शरीर के सभी अंगो की सफाई करने वाला ।
कब्जियत दूर करने वाला 30-40 साल पुरानी कब्जियत को भी दूर कर देता है ये त्रिफला चूर्ण ।
और सुबह त्रिफला लेने को पोषक कहा गया , अर्थात अगर आपको पोषक तत्वो की पूर्ति करनी है वात-पित कफ को संतुलित रखना है तो आप त्रिफला सुबह लीजिये सुबह का त्रिफला पोषक का काम करेगा ! और अगर आपको कब्जियत मिटानी है तो त्रिफला चूर्ण रात को लीजिये
त्रिफला कितनी मात्रा मे लेना है ?? किसके साथ लेना है
रात को कब्ज दूर करने के लिए त्रिफला ले रहे है तो एक टी स्पून (आधा बड़ा चम्मच) गर्म पानी
के साथ लें और ऊपर से दूध पी लें
सुबह त्रिफला का सेवन करना है तो शहद या गुड़ के साथ लें
तीन महीने त्रिफला लेने के बाद 20 से 25 दिन छोड़ दें फिर दुबारा सेवन शुरू कर सकते हैं ।
इस प्रकार त्रिफला चूर्ण आपके बहुत से रोगो का उपचार कर सकता है
इसके अतिरिक्त अगर आप आयुर्वेद के नियमो का भी पालन करते हो तो ये त्रिफला और भी अधिक और शीघ्र लाभ पहुंचाता है
जैसे मेदे से बने उत्पाद बर्गर ,नूडल ,पिजा आदि ना खाएं ये कब्ज का बहुत बड़ा कारण है ,रिफाईन तेल कभी ना खाएं ,हमेशा शुद सरसों ,नारियल ,मूँगफली आदि का तेल खाएं
,सेंधा नमक का उपयोग करें ।
श्री राजीव दीक्षित ✍🏻🇮🇳🌥🌿
भारत स्वाभिमान दल
भारत स्वाभिमान दल एक गैर सरकारी सामाजिक स्वयंसेवी संगठन है । इस संगठन का मुख्य उद्देश्य भारतीय संस्कृति की रक्षा व संवर्द्धन करना तथा सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व आध्यात्मिक सभी प्रकार की व्यवस्थाओं का परिवर्तन कर भूख, भय, अभाव, अशिक्षा व भ्रष्टाचार से मुक्त स्वस्थ, समृद्ध, शक्तिशाली एवं संस्कारवान भारत का पुनर्निर्माण करना है । भारत स्वाभिमान दल से जुड़ने के लिए हमारे वाट्सएप्प नंबर 8755762499 पर संपर्क करें।
Wednesday, August 31, 2016
चिकित्सा और सावधानिया - राजीव दीक्षित
प्रधानमंत्री के बयान से गोवंश प्राणों पर आसन्न गंभीर संकट
🚩अति महत्वपूर्ण 🚩
👏 विश्व की सबसे बड़ी गोशाला श्री पथमैङा गोधाम महा तीर्थ 👏
प्रधानमंत्री के बयान से गोवंश प्राणों पर आसन्न गंभीर संकट :-
गत दिनों प्रधानमंत्री के गोरक्षा विरोधी भाषण के दुष्प्रभाव से गोसेवी संस्थाओं में प्राप्त होने वाले गोग्रास में निरन्तर कमी आ रही है। लोकप्रसिद्ध गोसेवी संस्थान श्री पथमेडा गोधाम महातीर्थ राजस्थान द्वारा संचालित गोशालाश्रमों सहित राज्य की अन्य सैकडों गोशालाओं में आश्रित गोवंश के सामने गोग्रास के अभाव में भूख से अकाल मृत्यु के मुख में जाने का गंभीर खतरा उपस्थित हो गया है।भूमण्डल की सबसे बडी नन्दीशाला गोलासन {सांचौर-जालोर-राजस्थान} में हजारों नर गोवंश, जो अधिकतर कसाईयों से मुक्त कराया हुआ है।
प्रधानमंत्री के द्वेषपूर्ण भाषण का सर्वप्रथम गोवंश शिकार होता जा रहा है,अगर अगले कुछ दिनों मे शासन द्धारा चारा,दाना व दवाई की आपूर्ति इस नन्दीशाला में नहीं हुई तो हजारों गोवंश भूख से पीड़ित होकर अकाल मृत्यु मर सकता है।क्योंकि प्रधानमंत्री के गोविरोधी वक्तव्य के बाद जनता गोसेवा से विमुख होती जा रही है।जबकि पूर्व में केवल जनता जनार्दन के सहयोग से ही गोग्रास आपूर्ति होती थी, अब प्रधानमंत्रीजी के बयान से बदली परिस्थितियों में अन्य कोई विकल्प संस्था के पास नहीं है। संचालकगण त्यागपत्र देकर शासन के प्रकोप से मुक्त होने को आतुर है, ऐसे में उपरोक्त हजारों गोवंश भूख से व्याकुल पुन: सड़कों पर आकर भंयकर पीड़ाओं के साथ प्राणोत्सर्ग करेगा। इस पाप का भंयकर अपराध शासन व समाज दोनों के माथे चढकर उनका सर्वनाश कर सकता है..? अगर थोड़ी सी भी देश प्रदेश के शासको में मानवता बची है तो ऐसे निराश्रित व असहाय गोवंश का पोषण व संरक्षण करके देश व समाज को भविष्य की भंयकर आपदा से बचायें अथवा प्राकृतिक आपदा से जनता का हाहाकार मचने वाला है।
👏आप सभी से निवेदन है कि अधिक से अधिक गो सेवकों एवं सनातन धर्म प्रेमियों तक यह सूचना अवश्य पंहुचाएं।
धन्यवाद
🚩जय गोमाता जय गोपाल 🚩
भारत स्वाभिमान दल
प्रातः चायपानेन सह संस्कृत पत्रवाचनम्
यह सन्देश आप आगे भी प्रचारित करे अपने सभी समूह के माध्यम से ताकि हम सब मिलकर घर-घर तक संस्कृत पेपर पहुँचा सके...
नमो नम: |
प्रातः चायपानेन सह संस्कृत पत्रवाचनम् Sanskrit newspaper with morning tea..जी हां, हर संस्कृत प्रेमी की यह अभिलाषा होती है। परन्तु अरबो के बजट के संस्कृत के संस्थान और मठ/अाश्रम कोई ऐसी व्यवस्था अब तक नही दे पाये। परन्तु आज "विश्वस्य वृत्तान्त:" संस्कृत समाचार पत्र लगभग 2000 से ज्यादा पाठक व्हाट्स पर और 1000 से ज्यादा पाठक गुजरात के सूरत में नाश्ते की टेबल पर इसे पढते हुये चाय की चुस्कियां लेते है....
मित्रो आप सब संस्कृत प्रेमी क्यों नहीं जुड रहे इस अभियान से????
ज्यादा से ज्यादा लोगो को शेर करे यह पोस्ट...
संस्कृत समाचार पत्र "विश्वस्य वृत्तान्त:" प्रतिदिन अपने मोबाइल में सोफ्ट कोपी में प्राप्त करने के लिए संपर्क करे जगदीश डाभी
व्हाट्सप no. 0 9 4 2 8 7 0 6 5 8 4
*प्रश्न - संस्कृत समाचार पत्र क्यों ???
कारण :-
★संस्कृत अभ्यास के लिए |
★खबरो के लिए |
★संस्कृतभाषा के संरक्षण के लिए |
किमर्थं संस्कृतम् ?
- यथा फ्रान्सदेशे फ्रेञ्च्, जर्मनीदेशे जर्मन्,
रशियादेशे रशियन् तथा भारते संस्कृतम् अस्ति ।
यतः संस्कृतम् भारतस्य आत्मा अस्ति ।
- भारतीयानाम् अस्मिता संस्कृतम् अस्ति ।
सर्वेषां स्वाभिमानस्य प्रतीकम् अस्ति ।
भारतीयज्ञानस्य वाहिका - संस्कृतम् ।
संस्कृते विपुलं ज्ञान-भाण्डारं वर्तते ।
यथा -
चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा ।
रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ॥
इति ।
संस्कृतपठनेन वास्तविक-इतिहासस्य ज्ञानं
भवति । संस्कृतद्वारा स्वमूलेन सह
सम्बद्धाः भवामः ।
- संस्कृतम् अस्माकं जीवनस्य दिग्दर्शनं करोति ।
जीवनस्य लक्ष्यम् उन्नतं भवति ।
- स्वस्वविषय-ज्ञानेन सह
संस्कृतमपि जानीमः चेत् प्रतिष्ठा प्राप्यते ।
- अस्माकं संस्कारार्थं संस्कृतम् आवश्यकम् ।
अस्माकं सर्वे संस्काराः मन्त्रसहिताः सन्ति ।
- संस्कृतस्य वर्णमाला वैज्ञानिकी अस्ति ।
संस्कृतं वैज्ञानिकी, श्रेष्ठतम-उच्चा
रणशास्त्रयुक्ता, परिपूर्णा भाषा । ( Scientific,
Phonetic and Perfect language )
- संस्कृतोच्चारणेन अन्यभाषाणाम् उच्चारणं
सुलभं भवति । संस्कृतम् अस्ति चेद्
भारतीयभाषाः समृद्धाः भवन्ति ।
- संस्कृतस्य उच्चारणेन मस्तिष्कस्य भागद्वयस्य
अपि विकासः भवति । संस्कृतं केवलं
वर्गविशिष्टस्य भाषा न, अपितु सर्वेषाम् ।
( यथा - कालीदासः, व्यासः,
वाल्मीकिः इत्यादयः )
भाषाभावैक्यार्थं , सामाजिकसमरसतार्थं च
संस्कृतम् आवश्यकम् । तेन एव उच्चनीच-
स्पृश्यास्पृश्यभेदनिवारणं भवति ।
1949 तमे वर्षे डॉ. बाबासाहेब
आम्बेडकरः भारतस्य राजभाषा संस्कृतं भवतु
इति प्रस्तावम् आनीतवान् । अन्य-विरोध-कारण
तः अद्य नास्ति इति तु दुर्दैवम् ।
- विश्वे अधिकाधिकाः संस्कृतं पठितुम्
उत्सुकाः सन्ति । भारतात् बहिः २४०
विश्वविद्यालयेषु संस्कृतस्य पाठनं भवति ।
संस्कृते आध्यात्मिकज्ञानं केवलं न अपितु एतत्
विज्ञानतन्त्रज्ञानसहितम् अपि । यथा -
गणितं, खगोलशास्त्रं , वैमानिकशास्त्रं,
रसायनशास्त्रम्, आरोग्यशास्त्रं,
वास्तुरचनाशास्त्रं, जीवशास्त्रं, धातुशास्त्रम्
इत्यादि ।
- संस्कृतभाषायां ४५
लक्षाधिकाः पाण्डुलिपिग्रन्थाः सन्ति ।
संस्कृतेन स्वाभिमानस्य वर्धनं भवति ।
राष्ट्रैक्यस्य निर्माणं च भवति ।
एतेन प्रकारेण अत्युत्कृष्टा भारतीय-
ज्ञानपरम्परा,भवात्मिका चिन्तनरीतिः,
श्रेष्ठः जीवनादर्शः च संस्कृते अस्ति अतः संस्कृतम्
अनिवार्यम
अतः परीक्ष्य कर्त्तव्यं विशेषात् संगतं रहः।
अज्ञातह्रदयेष्वेवं वैरीभवति सौह्रदम् ।।
भारत देश में तुरंत हिंदी भाषा राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रभाषाका सभी कारोबारों में उपयोग करें
प्रिय मित्रो आनेवाले हिंदी दिवस केअवसर पर विशेष लेख जीसे पढकर मुझे याद आया एक पद्य। यह मैने १९७३ की गुरु पौर्णिमा के संघ कार्यक्रम घाटकोपर मे सुना था। एक जेष्ठ स्वयंसेवक श्री जामसाहेब ने प्रस्तुत किया था।
शपथ लेना तो सरल है
पर निभाना ही कठिन है !!
शलभ बन जलना सरल है
प्रेम की जलती शिखा पर
स्वयं को तिल तिल जलाना
दीप बनना ही कठिन है !! १!!
भारत सरकार से मै निवेदन करता हूँ की - अपने भारत देश मे तुरंत हिंदी भाषा राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रभाषाका सभी कारोबारों में उपयोग करें।
- धन्यवाद
साधना का पथ कठीण है।
एक और हिंदी दिवस
-आशीष गर्ग
चौदह सितंबर समय आ गया है एक और हिंदी दिवस मनाने का आज हिंदी के नाम पर कई सारे पाखंड होंगे जैसे कि कई सारे सरकारी आयोजन हिंदी में काम को बढ़ावा देने वाली घोषणाएँ विभिन्न तरह के सम्मेलन इत्यादि इत्यादि। हिंदी की दुर्दशा पर घड़ियाली आँसू बहाए जाएँगे, हिंदी में काम करने की झूठी शपथें ली जाएँगी और पता नहीं क्या-क्या होगा। अगले दिन लोग सब कुछ भूल कर लोग अपने-अपने काम में लग जाएँगे और हिंदी वहीं की वहीं सिसकती झुठलाई व ठुकराई हुई रह जाएगी।
ये सिलसिला आज़ादी के बाद से निरंतर चलता चला आ रहा है और भविष्य में भी चलने की पूरी पूरी संभावना है। कुछ हमारे जैसे लोग हिंदी की दुर्दशा पर हमेशा रोते रहते हैं और लोगों से, दोस्तों से मन ही मन गाली खाते हैं क्यों कि हम पढ़े-लिखे व सम्मानित क्षेत्रों में कार्यरत होने के बावजूद भी हिंदी या अपनी क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग के हिमायती हैं। वास्तव में हिंदी तो केवल उन लोगों की कार्य भाषा है जिनको या तो अंग्रेज़ी आती नहीं है या फिर कुछ पढ़े-लिखे लोग जिनको हिंदी से कुछ ज़्यादा ही मोह है और ऐसे लोगों को सिरफिरे पिछड़े या बेवक़ूफ़ की संज्ञा से सम्मानित कर दिया जाता है।
सच तो यह है कि ज़्यादातर भारतीय अंग्रेज़ी के मोहपाश में बुरी तरह से जकड़े हुए हैं। आज स्वाधीन भारत में अंग्रेज़ी में निजी पारिवारिक पत्र व्यवहार बढ़ता जा रहा है काफ़ी कुछ सरकारी व लगभग पूरा ग़ैर सरकारी काम अंग्रेज़ी में ही होता है, दुकानों वगैरह के बोर्ड अंग्रेज़ी में होते हैं, होटलों रेस्टारेंटों इत्यादि के मेनू अंग्रेज़ी में ही होते हैं। ज़्यादातर नियम कानून या अन्य काम की बातें किताबें इत्यादि अंग्रेज़ी में ही होते हैं, उपकरणों या यंत्रों को प्रयोग करने की विधि अंग्रेज़ी में लिखी होती है, भले ही उसका प्रयोग किसी अंग्रेज़ी के ज्ञान से वंचित व्यक्ति को करना हो। अंग्रेज़ी भारतीय मानसिकता पर पूरी तरह से हावी हो गई है। हिंदी (या कोई और भारतीय भाषा) के नाम पर छलावे या ढोंग के सिवा कुछ नहीं होता है।
माना कि आज के युग में अंग्रेज़ी का ज्ञान ज़रूरी है, कई सारे देश अपनी युवा पीढ़ी को अंग्रेज़ी सिखा रहे हैं पर इसका मतलब ये नहीं है कि उन देशों में वहाँ की भाषाओं को ताक पर रख दिया गया है और ऐसा भी नहीं है कि अंग्रेज़ी का ज्ञान हमको दुनिया के विकसित देशों की श्रेणी में ले आया है। सिवाय सूचना प्रौद्योगिकी के हम किसी और क्षेत्र में आगे नहीं हैं और सूचना प्रौद्योगिकी की इस अंधी दौड़ की वजह से बाकी के प्रौद्योगिक क्षेत्रों का क्या हाल हो रहा है वो किसी से छुपा नहीं है। सारे विद्यार्थी प्रोग्रामर ही बनना चाहते हैं, किसी और क्षेत्र में कोई जाना ही नहीं चाहता है। क्या इसी को चहुँमुखी विकास कहते हैं? ख़ैर ये सब छोड़िए समझदार पाठक इस बात का आशय तो समझ ही जाएँगे। दुनिया के लगभग सारे मुख्य विकसित व विकासशील देशों में वहाँ का काम उनकी भाषाओं में ही होता है। यहाँ तक कि कई सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अंग्रेज़ी के अलावा और भाषाओं के ज्ञान को महत्व देती हैं। केवल हमारे यहाँ ही हमारी भाषाओं में काम करने को छोटा समझा जाता है।
हमारे यहाँ बड़े-बड़े नेता अधिकारीगण व्यापारी हिंदी के नाम पर लंबे-चौड़े भाषण देते हैं किंतु अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों में पढ़ाएँगे। उन स्कूलों को बढ़ावा देंगे। अंग्रेज़ी में बात करना या बीच-बीच में अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग शान का प्रतीक समझेंगे और पता नहीं क्या-क्या।
कुछ लोगों का कहना है कि शुद्ध हिंदी बोलना बहुत कठिन है, सरल तो केवल अंग्रेज़ी बोली जाती है। अंग्रेज़ी जितनी कठिन होती जाती है उतनी ही खूबसूरत होती जाती है, आदमी उतना ही जागृत व पढ़ा-लिखा होता जाता है। शुद्ध हिंदी तो केवल पोंगा पंडित या बेवक़ूफ़ लोग बोलते हैं। आधुनिकरण के इस दौर में या वैश्वीकरण के नाम पर जितनी अनदेखी और दुर्गति हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं की हुई है उतनी शायद हीं कहीं भी किसी और देश में हुई हो।
भारतीय भाषाओं के माध्यम के विद्यालयों का आज जो हाल है वो किसी से छुपा नहीं है। सरकारी व सामाजिक उपेक्षा के कारण ये स्कूल आज केवल उन बच्चों के लिए हैं जिनके पास या तो कोई और विकल्प नहीं है जैसे कि ग्रामीण क्षेत्र या फिर आर्थिक तंगी। इन स्कूलों में न तो अच्छे अध्यापक हैं न ही कोई सुविधाएँ तो फिर कैसे हम इन विद्यालयों के छात्रों को कुशल बनाने की उम्मीद कर सकते हैं और जब ये छात्र विभिन्न परीक्षाओं में असफल रहते हैं तो इसका कारण ये बताया जाता है कि ये लोग अपनी भाषा के माध्यम से पढ़े हैं इसलिए ख़राब हैं। कितना सफ़ेद झूठ? दोष है हमारी मानसिकता का और बदनाम होती है भाषा। आज सूचना प्रौद्योगिकी के बादशाह कहलाने के बाद भी हम हमारी भाषाओं में काम करने वाले कंप्यूटर नहीं विकसित कर पाए हैं। किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति को अपनी मातृभाषा की लिपि में लिखना तो आजकल शायद ही देखने को मिले। बच्चों को हिंदी की गिनती या वर्णमाला का मालूम होना अपने आप में एक चमत्कार ही सिद्ध होगा। क्या विडंबना है? क्या यही हमारी आज़ादी का प्रतीक है? मानसिक रूप से तो हम अभी भी अंग्रेज़ियत के गुलाम हैं।
अब भी वक्त है कि हम लोग सुधर जाएँ वरना समय बीतने के पश्चात हम लोगों के पास खुद को कोसने के बजाय कुछ न होगा या फिर ये भी हो सकता है कि किसी को कोई फ़र्क न पड़े। सवाल है आत्मसम्मान का, अपनी भाषा का, अपनी संस्कृति का। जहाँ तक आर्थिक उन्नति का सवाल है वो तब होती है जब समाज जागृत होता है और विकास के मंच पर देश का हर व्यक्ति भागीदारी करता है जो कि नहीं हो रहा है। सामान्य लोगों को जिस ज्ञान की ज़रूरत है वो है तकनीकी ज्ञान, व्यवहारिक ज्ञान जो कि सामान्य जन तक उनकी भाषा में ही सरल रूप से पहुँचाया जा सकता है न कि अंग्रेज़ी के माध्यम से।
वर्तमान अंग्रेज़ी केंद्रित शिक्षा प्रणाली से न सिर्फ़ हम समाज के एक सबसे बड़े तबक़े को ज्ञान से वंचित कर रहे हैं बल्कि हम समाज में लोगों के बीच आर्थिक सामाजिक व वैचारिक दूरी उत्पन्न कर रहे हैं, लोगों को उनकी भाषा, उनकी संस्कृति से विमुख कर रहे हैं। लोगों के मन में उनकी भाषाओं के प्रति हीनता की भावना पैदा कर रहे हैं जो कि सही नहीं है। समय है कि हम जागें व इस स्थिति से उबरें व अपनी भाषाओं को सुदृढ़ बनाएँ व उनको राज की भाषा, शिक्षा की भाषा, काम की भाषा, व्यवहार की भाषा बनाएँ।
इसका मतलब यह भी नहीं है कि भावी पीढ़ी को अंग्रेज़ी से वंचित रखा जाए, अंग्रेज़ी पढ़ें सीखें परंतु साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि अंग्रेज़ी को उतना ही सम्मान दें जितना कि ज़रूरी है, उसको सम्राज्ञी न बनाएँ, उसको हमारे दिलोदिमाग़ पर राज करने से रोकें और इसमें सबसे बड़े योगदान की ज़रूरत है समाज के पढ़े-लिखे वर्ग से ,युवाओं से, उच्चपदों पर आसीन लोगों से, अधिकारी वर्ग से बड़े औद्योगिक घरानों से। शायद मेरा ये कहना एक दिवास्वप्न हो क्यों कि अभी तक तो ऐसा हो नहीं रहा है और शायद न भी हो। पर साथ-साथ हमको ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी राष्ट्र नकल करके बहुत ऊपर नहीं उठता है और महान नहीं बनता है।
Tuesday, August 30, 2016
जिनको सब चमार बोलते है, वो असल में चंवरवंश के वीर क्षत्रीय हैं
जिनको सब चमार बोलते है, वो असल में चंवरवंश के वीर क्षत्रीय हैं
अभी कुछ समय पूर्व तक जिन्हें करोड़ों हिन्दू छूने से कतराते थे और उन्हें घर के अन्दर भी आने की मनाही थी, वो असल में चंवरवंश के क्षत्रीय हैं। यह खुलासा डॉक्टर विजय सोनकर की पुस्तक – हिन्दू चर्ममारी जाति:एक स्वर्णिम गौरवशाली राजवंशीय इतिहास में हुआ है। इस किताब में उन्होंने लिखा है कि विदेशी विद्वान् कर्नल टॉड ने अपनी पुस्तक राजस्थान का इतिहास में चंवरवंश के बारे में बहुत विस्तार में लिखा है। इतना ही नहीं महाभारत के अनुशासन पर्व में भी इस वंश का उल्लेख है। वर्ण व्यवस्था को क्रूर और भेद-भाव बनाने वाले हिन्दू हैं, विदेशी आक्रमणकारी थे! उम्मीद है, धीरे धीरे पूरा सच सामने आएगा लेकिन, अभी के लिए हम आपको बताने जा रहे हैं की ‘चमार’ शब्द आखिर हिन्दू समाज में आया कैसे!
जब भारत पर तुर्कियों का राज था, उस सदी में इस वंश का शासन भारत के पश्चिमी भाग में था। और उस समय उनके प्रतापी राजा थे चंवर सेन। इस राज परिवार के वैवाहिक सम्बन्ध बप्पा रावल के वंश के साथ थे। राना सांगा और उनकी पत्नी झाली रानी ने संत रैदासजी जो की चंवरवंश के थे, को मेवाड़ का राजगुरु बनाया था। यह चित्तोड़ के किले में बाकायदा प्रार्थना करते थे। आज के समाज में जिन्हें चमार बुलाया जाता है, उनका इतिहास में कहीं भी उल्लेख नहीं है।
डॉक्टर विजय सोनकर के अनुसार प्राचीनकाल में ना तो यह प्रचलन में था न ही इस शब्द का कोई उल्लेख ही प्राचीन काल में पाया जाता है, ना हीं इस नाम की कोई जाति है। तो आखिर ये शब्द आया कहाँ से है
डॉक्टर विजय सोनकर के अनुसार प्राचीनकाल में ना तो यह शब्द पाया जाता है, ना हीं इस नाम की कोई जाति है। ऋग्वेद में बुनकरों का उल्लेख तो है, पर वहाँ भी उन्हें चमार नहीं बल्कि तुतुवाय के नाम से सम्भोदित किया गया है। सोनकर कहते हैं कि चमार शब्द का उपयोग पहली बार सिकंदर लोदी ने किया था। मुस्लिम अक्रान्ताओं के धार्मिक उत्पीड़न का अहिंसक तरीके से सर्वप्रथम जवाब देने की कोशिश संत रैदास ने की थी। उन्हें दबाने के लिए सिकंदर लोदी ने बलपूर्वक उन्हें चरम कर्म में धकेल दिया था। और उन्हें अपमानित करने के लिए पहली बार “ चमार “ शब्द का उपयोग किया था।
सोनकर आगे बताते हैं कि संत रैदास ने सारी दुनिया के सामने मुल्ला सदना फ़क़ीर को शास्त्रार्थ में हरा दिया था। मुल्ला फ़क़ीर ने तो अपनी हार मान ली और वह हिन्दू बन गए, परन्तु सिकंदर लोदी आग बबूला हो गए। उन्होंने संत को कारागार में डाल दिया, पर जल्द ही चंवरवंश के वीरों ने दिल्ली को घेर लिया और लोदी को संत को छोड़ना ही पड़ा।
इस वर्तमान पीढ़ी की विडंबना देखिये कीहम इस महान संत के बलिदान से अनभिज्ञ हैं। कमाल की बात तो यह है कि इतने ज़ुल्म सहने के बाद भी इस वंश के वीर हिंदु ही बने रहे और उन्होंने इस्लाम को नहीं अपनाया। गलती हमारे समाज में है। हम हिन्दुओं को अपने से ज्यादा भरोसा वामपंथियों और अंग्रेजों के लेखन पर है। उनके कहे झूठ के चलते हमने अपने भाइयों को अछूत बना लिया।
आज हमारा हिन्दू समाज अगर कायम है, तो उसमें बहुत बड़ा बलिदान इस वंश के वीरों का है। जिन्होंने नीचे काम करना स्वीकार किया, पर इस्लाम नहीं अपनाया। उस समय या तो आप इस्लाम को अपना सकते थे, या मौत को गले लगा सकते था, अपने जनपद/प्रदेश से भाग सकते थे, या फिर आप वो काम करने को हामी भर सकते थे जो अन्य लोग नहीं करना चाहते थे। यह पढने के बाद अब तो आपको विश्वास हो जाना चाहिए की हमारे बीच कोई भी चमार अथवा अछूत नहीं है।