इसलिए कि वेद और केवल वेद ही ऐसा एकमात्र ज्ञान है जिसे ईश्वरीय ज्ञान की संज्ञा दी जा सकती है। कारण कि ईश्वरीय ज्ञान के लिए यह आवश्यक है कि
प्रथम- वह सृष्टि के आरम्भ में होना चाहिए
दूसरे- वह ज्ञान सृष्टि नियम के सर्वथा अनुकूल होना चाहिए
तीसरे- वह निभ्रान्त तथा सम्पूर्ण होना चाहिए
चौथे- वह ज्ञान ईश्वर के गुणों का वर्णन उसके गुण-कर्म-स्वभावानुसार करता हो
पांचवा- उसमें मानवीय इतिहास लेशमात्र भी नहीं होना चाहिए
छटवां- यह ज्ञान किसी देश विशेष अथवा जाति विशेष के लिए नहीं होना चाहिए, अपितु मानवमात्र के लिए होना चाहिए
सातवा- उसमें मानव की इहलौकिक एवं पारलौकिक उन्नति हेतु आवश्यक समस्त ज्ञान विज्ञान का मूल समाविष्ट होना चाहिए।
ईश्वरीय ज्ञान को परखने की इस कसौटी पर वेद को छोड़ कर अन्य कोई भी ग्रन्थ खरा नहीं उतरता। वेद को जिस ओर से जहॉं से भी इस कसौटी पर कसा जाए खरा ही उतरता है।
महर्षि दयानन्द वेद के ईश्वरकृत होने में निम्न प्रमाण देते हैं- "जैसा ईश्वर पवित्र, सर्वविद्यावित, शुद्ध गुणकर्मस्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुण वाला है वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण, कर्म स्वभाव के अनुकूल कथन हो वह ईश्वरकृत, अन्य नहीं। और जिसमें सृष्टिक्रम प्रत्यक्षादि प्रमाण आप्तों के और पवित्रात्मा के व्यवहार से विरुद्ध कथन न हो वह ईश्वरोक्त। जैसा ईश्वर का निर्भ्रम ज्ञान वैसा जिस पुस्तक में भ्रान्तिरहित ज्ञान का प्रतिपादन हो वह ईश्वरोक्त। जैसा परमेश्वर है और वैसा सृष्टिक्रम रक्खा है वैसा ही ईश्वर, सृष्टि, कार्य-कारण और जीव का प्रतिपादन जिसमें होवे वह परमेश्वरोक्त पुस्तक होता है और जो प्रत्यक्षादि प्रमाण विषयों से अविरुद्ध शुद्धात्मा के स्वभाव से विरुद्ध न हो, इस प्रकार के वेद हैं। अन्य बाइबिल, कुरान आदि पुस्तकें नहीं।" (सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम समुल्लास)
और
"जैसे इस कल्प की सृष्टि में शब्द, अक्षर, अर्थ और सम्बन्ध वेदों में हैं, इसी प्रकार से पूर्व कल्प में थे और आगे भी होंगे। क्योंकि जो ईश्वर की विद्या है सो नित्य एक ही बनी रहती है। उनके एक अक्षर का भी विपरीत भाव कभी नहीं होता। सो ऋग्वेद से लेके चारों वेदों की संहिता अब जिस प्रकार की हैं कि इनमें शब्द, अर्थ, सम्बन्ध, पद और अक्षरों का जिस क्रम से वर्तमान है इसी प्रकार का क्रम सब दिन बना रहता है। क्योंकि ईश्वर का ज्ञान नित्य है, उसकी वृद्धि, क्षय और विपरीतता कभी नहीं होती।" (ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका)
महर्षि द्वारा बताई कसौटी पर अन्य कोई भी ग्रन्थ खरा नहीं उतरता। अत: उसे ईश्वरीय ज्ञान किसी प्रकार भी नहीं माना जा सकता। ईश्वरीय ज्ञान वेद पूर्णत: विज्ञान सम्मत तथा सृष्टि नियम के अनुकूल है। विज्ञान का इसके साथ कहीं भी कुछ विरोध नहीं। अत: वैदिक धर्म जिसका कि आर्य समाज प्रचार करता है सर्वथा वैज्ञानिक धर्म है।
वैदिक धर्म की श्रेष्ठता दर्शाते हुए इंग्लैण्ड के महामनीषी मिस्टर डब्लू. डी. ब्राऊन लिखते हैं-
It is a thoroughly scientific religion where science and religion meet hand in hand. Here theology is based upon Science and Philosophy. (Superiority of Vedic Religion)
अर्थात् यह एक पूर्णतया वैज्ञानिक धर्म है जहॉं धर्म और विज्ञान हाथ में हाथ मिलाकर चलते हैं। यहॉं धार्मिक सिद्धान्त विज्ञान और फिलासफी पर अवलम्बित हैं।
सच पूछिये तो आज के वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में कोई भी धर्म टिक ही नहीं सकता, यदि वह विज्ञान के सच्चे नियमों से मेल न खाता हो।
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