जाति का अर्थ है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण। न्याय सूत्र में लिखा है समानप्रसवात्मिका जाति: -न्याय दर्शन[vi] अर्थात जिनके प्रसव अर्थात जन्म का मूल सामान हो अथवा जिनकी उत्पत्ति का प्रकार एक जैसा हो वह एक जाति कहलाते है।
आकृतिर्जातिलिङ्गाख्या-न्याय दर्शन[vii] अर्थात जिन व्यक्तियों कि आकृति (इन्द्रियादि) एक समान है, उन सबकी एक जाति है।
हर जाति विशेष के प्राणियों के शारीरिक अंगों में एक समानता पाई जाती है। सृष्टि का नियम है कि कोई भी एक जाति कभी भी दूसरी जाति में परिवर्तित नहीं हो सकती है और न ही भिन्न भिन्न जातियाँ आपस में संतान को उत्त्पन्न कर सकती है। इसलिए सभी जातियाँ ईश्वर निर्मित है नाकि मानव निर्मित है। सभी मानवों कि उत्पत्ति, शारीरिक रचना, संतान उत्पत्ति आदि एक समान होने के कारण उनकी एक ही जाति हैं और वह है मनुष्य।
वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए प्रयुक्त किया गया “वर्ण” शब्द का प्रयोग किया जाता है। वर्ण का मतलब है जिसका वरण किया जाए अर्थात जिसे चुना जाए। वर्ण को चुनने का आधार गुण, कर्म और स्वभाव होता है। वर्णाश्रम व्यवस्था पूर्ण रूप से वैदिक है एवं इसका मुख्य प्रयोजन समाज में मनुष्य को परस्पर सहयोगी बनाकर भिन्न भिन्न कामों को परस्पर बाँटना, किसी भी कार्य को उसके अनुरूप दक्ष व्यक्ति से करवाना, सभी मनुष्यों को उनकी योग्यता अनुरूप काम पर लगाना एवं उनकी आजीविका का प्रबंध करना है।
आरम्भ में सकल मनुष्य मात्र का एक ही वर्ण था[viii], लौकिक व्यवहारों कि सिद्धि के लिए कामों को परस्पर बांट लिया। यह विभाग करने कि प्रक्रिया पूर्ण रूप से योग्यता पर आधारित थी। कालांतर में वर्ण के स्थान पर जाति शब्द रूढ़ हो गया। मनुष्यों ने अपने वर्ण अर्थात योग्यता के स्थान पर अपनी अपनी भिन्न भिन्न जातियाँ निर्धारित कर ली। गुण, कर्म और स्वभाव के स्थान पर जन्म के आधार पर अलग अलग जातियों में मनुष्य न केवल विभाजित हो गया अपितु एक दूसरे से भेदभाव भी करने लगा। वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था के स्थान छदम एवं मिथक जातिवाद ने लिया।
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