Wednesday, August 24, 2016

इस महान बलिदानी को खुद घरवालों ने नहीं अपनाया, कहते थे 'पागल', मगर दिलेरी देख दंग थी दुनिया!

एक क्रांतिकारी का ये आखिरी बयान है-‘मेरे जैसे एक बेटे के पास अपनी मां को देने के लिए क्या है? केवल मेरा अपना खून.. जो मैंने उसकी वेदी पर चढ़ा दिया है। भारत में इस वक्त केवल एक ही पाठ सिखाने की जरूरत है और वो ये कि कैसे अपनी जान कुर्बान की जाए और इसे सिखाने का बस एक ही रास्ता है कि हम खुद अपनी जान देश पर कुर्बान करके दिखाएं। मेरी भगवान से बस एक ही प्रार्थना है कि अगले जन्म में मैं उसी मां की कोख से जन्म लूं, उसी धरती पर जन्म लूं और फिर उसी ध्येय के लिए अपनी जान कुर्बान कर दूं और करता रहूं, जब तक कि वो ध्येय पूरा ना हो’। आपको हैरत होगी ये जानकर कि इस क्रांतिकारी को आज तक उसके परिवार वालों ने अपनाया नहीं है। 1909 में लंदन जाकर अंग्रेजों के घर में उनके एक बड़े अफसर को मौत की नींद सुला देने वाले इस वीर क्रांतिकारी का नाम था मदन लाल धींगरा।
मदन लाल धींगरा से लंदन में जब कोर्ट ने पूछा तो उन्होंने वकील लेने से ये कहकर इनकार कर दिया कि मेरा केस आपको सुनने का अधिकार ही नहीं है। आप तो विदेशी हो हमारे देश पर कब्जा किए बैठे हो, आप हमारे साथ न्याय कैसे कर सकते हो। धींगरा ने अपना केस खुद लड़ा और मान लिया कि अंग्रेजी अफसर विलियम हट कर्जन वाइली, जो कि भारत सचिव का राजनीतिक सलाहकार था और भारत में अरसे से फौजी अफसर के बतौर काम कर चुका था, की हत्या उसने की लेकिन क्यों की, उस स्टेटमेंट की थोड़ी सी लाइनें पढ़िए, ‘अगर जर्मनी इंग्लैंड पर कब्जा कर लेता और कोई अंग्रेज इसके विरोध में किसी जर्मन को मार देता तो क्या वो देशभक्ति नहीं होती? पिछले पचास साल में मेरे देश के 8 करोड़ लोगों की मौत के अंग्रेज जिम्मेदार हैं और हर साल मेरे देश से एक करोड़ डॉलर निकालकर ले जाने के लिए भी आप ही लोग जिम्मेदार हैं। आपकी हिप्पोक्रेसी देखकर मैं हैरान हूं, कांगो और रूस में कुछ भी गलत होता है तो आप लोग मानवीयता की बातें करते हो और हर साल इंडिया में बीस लाख लोगों की मौत आपकी वजह से होती है और कोई फर्क नहीं’। आखिर में मदन ने कहा, ‘आप मुझे फांसी दे दो, आई डोंट केयर। आप गोरे लोग आज पॉवरफुल हो, लेकिन एक दिन हमारा भी वक्त आएगा, फिर हम वो करेंगे जो हम चाहेंगे’।
ये अपने आप में पहला मामला था, जिसकी ना केवल एक दिन में यानी 23 जुलाई 1909 को ही सुनवाई पूरी हो गई, जज ने उसी दिन ना केवल फांसी की सजा सुनाई बल्कि किस जेल में और कौन सी तारीख को फांसी होगी, ये भी बता दिया। बाद में अंग्रेजी मीडिया ने इस बात की काफी आलोचना की। टाइम्स ऑफ लंदन ने अगले दिन ‘कनविक्शन ऑफ धींगरा’ के नाम से एक रिपोर्ट लिखी, "The nonchalance displayed by the assassin was of a character which is happily unusual in such trials in this country. He asked no questions. He maintained a defiance of studied indifference. He walked smiling from the Dock."। मदन लाल के आखिरी स्टेटमेंट की चर्चा उन दिनों डेविड लॉयड जॉर्ज और विंस्टन चर्चिल के बीच भी हुई, इस प्राइवेट बातचीत में उन्होंने इस स्टेटमेंट को ‘The Finest ever made in the name of Patriotism’ बताया, ऐसी उन दिनों मीडिया में खबरें थीं।
लेकिन हमारे देश में क्या हुआ? गांधीजी जो उन दिनों तक एक तरह से नेपथ्य में थे, उन्होंने धींगरा के बयान की आलोचना की और 14 अगस्त 1909 के द इंडियन ओपीनियन के अंक में उन्होंने लिखा, ‘Even should the British leave in consequence of such murderous acts, who will rule in their place? Is the Englishman bad because he is an Englishman? Is it that everyone with an Indian skin is good? If that is so, there should be [no] angry protest against oppression by Indian princes. India can gain nothing from the rule of murderers—no matter whether they are black or white. Under such a rule, India will be utterly ruined and laid waste’।
...तो ऐसा था मोहनदास गाँधी, जिसने क्रांतिकारियों के जान की कोई कीमत नहीं समझी।।। जिस देश में ऐसे दोगलों को इतना सम्मान मिलता है, उस देश का कहना हीं क्या???
इंडिया दल्लों का देश है????
और ये दल्ले बिना किसी भय के भारत को निगलते जा रहे हैं ???

भारत स्वाभिमान दल

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