Wednesday, August 24, 2016

अनमोल सूक्तियां

*नारुंतुदः स्यादार्तो अपि।*
―(मनु० २/१६१)
दुःखी होने पर भी मर्म भेदी बात न कहें।
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*न स सखा यो न ददाति सख्ये।*
―(ऋ० १०/११७/२०)
वह मित्र ही नहीं जो मुसीबत में मित्र का साथ नहीं देता।
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*इन्द्रस्य युज्यः सखा।*
–(अथर्व० ७/२६/६)
वह (परमात्मा) जीवात्मा का साथ देने वाला परम मित्र है।
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*दैवं पुरुषकारेन ने शक्यमतिर्वार्ततुम्।*
―(म. भा.)
प्रारब्ध के विधान को कोई पुरुषार्थ द्वारा नहीं टाल सकता। वह होकर ही रहता है।
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*अतश्चिदा जनिषौष्ट प्रवृद्धो मा मातरममुया पत्त्वे कः ।*
―(ऋ० ४/१८/१)
बड़ी वृद्ध होने पर भी माता का अपमान किसी को नहीं करना चाहिए।
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*विष्णोः कर्माणि पश्यत् ।*
―(अथर्व० ७/२६/६)
सर्व व्यापक परमात्मा के आश्चर्य जनक कर्मों को देखो।
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*अयं पन्था अनुवित्तः पुराणो यतो देवा उदजायन्तविश्वे ।*
―(ऋ० ४/१८/१)
जिस मार्ग से यथार्थ वक्ता पुरुष जावें उस मार्ग से हम सब लोग चलें।
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*यावज्जीवेन तत् येन प्रेत्य सुखं वसेत ।*
―(म.भ.))
जीवन भर वह काम कर ले जिससे मरने के पश्चात् इहलोक और परलोक में भी सुख मिले।
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*द्विषदन्नं न भोक्तव्यं ।*
―(म.भ.)
जो व्यक्ति द्वेष रखता हो उसका अन्न नहीं खाना चाहिए।
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*सुखानां तुष्टिरुत्तमा ।*
सुखों में सन्तोष उत्तम है।
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*स्वाध्याय एव ब्राह्मणाणां देवत्वम् ।*
―(म० भ०)
स्वाध्याय ही ब्राह्मणों का देवत्व है।
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*ईर्ष्योः मनः मृतम् ।*
―(अथर्व० ६/१८/२)
ईर्ष्यालू पुरुष का मन मर जाता है इसलिए ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।
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*मित्र द्रोहस्तु पापियान ।*
―(मित्र से द्रोह (धोखा) करना पाप है।
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*गहीत इव कैशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ।*
―(श० प०)
मृत्यु ने बालों को पकड़ा हुआ है,यह सोचते हुए धर्माचरण ही करो।
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*नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति सज्जनाः जनाः ।*
फलों से लदे वृक्ष और गुणों से भरे मनुष्य नम्र होते हैं।
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*गुणधर्मविहीनस्य जीवितं निष्प्रयोजनम् ।*
गुण और धर्म से विहीन पुरुष का जीवन व्यर्थ होता है।
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*भोजने चामृत वारि भोजनान्ते विष प्रदम् ।*
―(चाण०)
भोजन करते समय (बीच में) जल अमृत है और भोजन के अन्त में विष है।
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*तन्मित्रं  यत्र विश्वासः ।*
―(चाण०)
मित्र वही है जो विश्वासी है।
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*पर्णे वो वस्तिष्कृता ।*
―(यजु० १२/७९,ऋ० १०/९७/५)
ऐ मनुष्यो ! तुम्हारा पत्ते पर निवास है।
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*मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।*
―(यजु० ३४/१-६)
मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो।
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*नित्यं अनार्य वर्जनम् ।*
―(म० भ० श० प०)
अनार्यों के संग से सदा बचे रहना चाहिए।
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*चीरस्य न भयं विद्यते क्वचित ।*
―(म० भ०)
धीरता (धैर्य) जिसका गुण है उसे कहीं भी भय नहीं।
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*मा विद्विषावहै ।*
―(तैतरीय उप०)
हम किसी से द्वेष न करें।
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