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महाराष्ट्र के मटकी प्रकरण में अदालत के प्रतिबंध को में मानव समाज की "सहज चेतना" के विरूद्ध मानता हूँ। क्योंकि, प्रकृति के साथ मानव जीवन की "प्रतिस्पर्धा" जन्मगत है।
हिमालय की ऊंचाई हो या फिर
सागर की अतल गहराई !
प्रकृति की चुनौती को मानव ने हमेशा स्वीकार किया है.!!
यही वजह है कि, एडमण्ड हिलेरी या शेरपा तेजिनग
अपनी राष्ट्रीयता के बाहर निकल
इंसानी समाज के नायक बने.!!!
अब जब अदालत ने 35 फुट की पाबन्दी
लगा दी है तो, सीधे तौर पर मानव के
अदम्य साहस और जिजीविषा को
प्रतिबंधित कर दिया है..!!!
और अदालत का यह कदम मानवीय नहीं
बल्कि मानव समाज के साहस उत्साह को रोकने का अदालती कुचक्र है।
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इसका दूसरा पक्ष और भी घृणित है।
जैसे-जैसे चुनौती बड़ी होती है..
मानव समाज एकजुट होता है।
और यह भावना बाढ़, सुनामी या ऐसे
कुदरती कहर के समय ताकत
के साथ दिखाई देती है।
ऐसे वक्त मानव समाज
जाति, आस्था और तमाम दूसरे फर्क
को मिटाकर कर एकजुट हो जाता है।
और इस तरह की घटनाओं से ही समाज
के अनन्य साहसी वास्तविक नायक उभरते हेँ।
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अब अदालत के फैसले पर ग़ौर करें।
अदालत ने मानव जिजीविषा और
जोखिम मोल लेने की क्षमता को
35 फुट पर लाकर रोक दिया..!!!
अब यदि मैं इस जज से पूंछूं..
"भाई!
इस 35 फुट की समझ आपको कहाँ से मिली??"
संभव है, जज कहेगा..
पिछले कई सालों से 35 फुट से ऊँची मटकी
गोविंदाओं की टोली नहीं तोड़ पा रही है..!!
और गिर कर चोट खा रही है..!!
तो उस जज से मेरा सवाल होगा कि,
काल की कोख में कितने मिलिखा सिंह
और ध्यानचंद छिपे हुए हेँ, आपने देख
लिया है क्या ??
या फिर ऐसा कौन सा औपनिवेशिक कानून
है, जिसके आधार पर आपने गोविंदाओं
के साहस और जिजीविषा को नाप लिया ???
जाहिर है, इस ईसाई कानून और जज के
पास ऐसा कोई नपना नहीं है, जो मानव क्षमताओं को नाप सके।
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अदालत के आदेश का दूसरा पक्ष
तो और भी घातक और भारत विरोधी है।
भारत के ऐसे आयोजन हिन्दू समाज को जाति
से मुक्त कर एकजुट करते हेँ।
यहां आरक्षण नहीं चलेगा।
यदि शूद्र का बेटा योग्य है तो वही ब्राह्मण के कन्धे पर चढेगा।
क्योंकि अंतिम लक्ष्य तो विजय ही है।
यह कोई सरकारी चाकरी की परीक्षा नहीं
जो राजनेताओं की अनुकंपा का मोहताज हो।
यह समाज की प्रतिस्पर्धा है !
जिजीविषा की प्रतिस्पर्धा है!
और इसके "नियम" हर मानव समाज
अपने गठन के साथ लेकर पैदा हुआ है।
यह किसी "संविधान" का मोहताज नहीं है।
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यहां एक बात और स्पष्ट कर दूँ।
कुछ मित्रों ने मोहर्रम का जिक्र किया !
मैं उनसे सहमत हूँ।
मोहर्रम का प्रदर्शन
सामूहिक होते हुए भी "एकल प्रदर्शन" है।
उसमें "टीम वर्क" की जरूरत नहीं है।
जबकि, "गोविंदाओं" का प्रदर्शन "टीम वर्क" है।
मोहर्रम से तुलना ही गलत है।
उसमें अन्य धर्म के लिए स्थान नही।
जबकि "मानव पिरामिड" बना
मटकी तोड़ना एक "कौशल" है।
जिसमें जो चाहे अपना दमखम आजमा सकता है।
लक्ष्य यहां हसन या हुसैन नहीं।
मटकी है, ऊंचाई है।
और मटकी का कोई मजहब नहीं होता।
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तो इस अदालत ने चोटिल होने के नाम
पर मानव समाज की जिजीविषा को
प्रतिबंधित किया है।
इस अदालत ने "मानवीय" होने का नकाब पहन भारत के साथ "बलात्कार" किया है।
भारतीय समाज को एकजुट होने की सीमा तय कर भारत का बंटवारा किया है।
यह फैसला "भारत विरोधी" ही नही "मानव मुक्ति" के अभियान को दूषित करने का भी "गुनहगार" है।
ऐसे फैसले को कूड़ेदान में डालना ही होगा।
यही धर्म है
यही हमारा दायित्व है।
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