नास्तिकों के एक समूह ने एक चित्र में दर्शया गया कि इस्लाम, ईसाई,बुद्ध, जैन आदि धर्मों के जन्मदाता तो ज्ञात हैं। मगर हिन्दू धर्म के जन्मदाता का नाम बताये। इस पोस्ट का मुख्य उद्देश्य हिन्दू समाज का उपहास करना था। क्यूंकि साधारण हिन्दू युवक इस पोस्ट से भ्रमित अवश्य हो जायेगा और द्रोही नास्तिक ताली बजाएंगे। मगर इस प्रश्न का उत्तर पढ़ने के पश्चात पाठकों को संसार में धर्म के नाम पर जितने भी विवाद, संघर्ष, विरोध क्यों हो रहे हैं। उसका कारण भी पता चल जायेगा। इस लेख में हम तीन महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करेंगे।
1. वैदिक धर्म का संस्थापक कौन है?
2. धर्म की परिभाषा क्या है?
3. धर्म और मत में अंतर क्या हैं?
सर्वप्रथम तो इस्लाम, ईसाई,बुद्ध, जैन आदि धर्म नहीं अपितु मत हैं। संसार में सभी मत-मतान्तर को चलाने वाले सब मनुष्य है। जबकि धर्म केवल एक है। वैदिक धर्म। जिसे किसी मनुष्य ने नहीं चलाया। सृष्ठि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा वेदों का ज्ञान समस्त मनुष्य जाति को मार्गदर्शन हेतु प्रदान किया गया। तभी से वैदिक धर्म चलता आया है। कालांतर में धर्म के स्थान पर बहुत सारे मत प्रचलित हो गए। समाज इन मतों को ही धर्म समझने लगा। यही मत-मतान्तर आपसी झगडे का कारण है। वैदिक धर्म का ज्ञान देने वाले कोई मनुष्य विशेष नहीं अपितु ईश्वर ही है। दूसरा धर्म की परिभाषा को जानना आवश्यक है।
धर्म का परिभाषा क्या हैं?
1. धर्म संस्कृत भाषा का शब्द हैं जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना हैं। "धार्यते इति धर्म:" अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म हैं। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म हैं। दूसरे शब्दों में यहभी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं वह धर्म हैं।
2. जैमिनी मुनि के मीमांसा दर्शन के दूसरे सूत्र में धर्म का लक्षण हैं लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता हैं।
3. वैदिक साहित्य में धर्म वस्तु के स्वाभाविक गुण तथा कर्तव्यों के अर्थों में भी आया हैं। जैसे जलाना और प्रकाश करना अग्नि का धर्म हैं और प्रजा का पालन और रक्षण राजा का धर्म हैं।
4. मनु स्मृति में धर्म की परिभाषा
धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं ६/९
अर्थात धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं।
दूसरे स्थान पर कहा हैं आचार:परमो धर्म १/१०८
अर्थात सदाचार परम धर्म है
5. महाभारत में भी लिखा हैं
धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते प्रजा:
अर्थात जो धारण किया जाये और जिससे प्रजाएँ धारण की हुई है वह धर्म है।
6. वैशेषिक दर्शन के कर्ता महा मुनि कणाद ने धर्म का लक्षण यह किया है
यतोअभयुद्य निश्रेयस सिद्धि: स धर्म:
अर्थात जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति) और निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती हैं, वह धर्म है।
7. स्वामी दयानंद के अनुसार धर्म की परिभाषा
जो पक्ष पात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है, उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म हैं।-सत्यार्थ प्रकाश ३ सम्मुलास
पक्षपात रहित न्याय आचरण सत्य भाषण आदि युक्त जो ईश्वर आज्ञा वेदों से अविरुद्ध हैं, उसको धर्म मानता हूँ - सत्यार्थ प्रकाश मंतव्य
इस काम में चाहे कितना भी दारुण दुःख प्राप्त हो , चाहे प्राण भी चले ही जावें, परन्तु इस मनुष्य धर्म से पृथक कभी भी न होवें।- सत्यार्थ प्रकाश
धर्म और मत/मजहब में क्या अंतर हैं?
धर्म मनुष्य की उन्नति के लिए आवश्यक है अथवा बाधक है इसको जानने के लिए हमें सबसे पहले धर्म और मजहब में अंतर को समझना पड़ेगा। कार्ल मार्क्स ने जिसे धर्म के नाम पर अफीम कहकर निष्कासित कर दिया था वह धर्म नहीं अपितु मज़हब था। कार्ल मार्क्स ने धर्म ने नाम पर किये जाने वाले रक्तपात, अन्धविश्वास, बुद्धि के विपरीत किये जाने वाले पाखंडों आदि को धर्म की संज्ञा दी थी। जबकि यह धर्म नहीं अपितु मज़हब का स्वरुप था। प्राय:अपने आपको प्रगतिशील कहने वाले लोग धर्म और मज़हब को एक ही समझते हैं।
मज़हब अथवा मत-मतान्तर अथवा पंथ के अनेक अर्थ है जैसे वह रास्ता जी स्वर्ग और ईश्वर प्राप्ति का है और जोकि मज़हब के प्रवर्तक ने बताया है। अनेक जगहों पर ईमान अर्थात विश्वास के अर्थों में भी आता है।
1. धर्म और मज़हब समान अर्थ नहीं हैं और न ही धर्म ईमान या विश्वास का प्राय: हैं।
2. धर्म क्रियात्मक वस्तु हैं मज़हब विश्वासात्मक वस्तु हैं।
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Wednesday, August 24, 2016
धर्म और मत/ मज़हब में अंतर क्या हैं?
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