Wednesday, August 24, 2016

सत्यार्थ प्रकाश छठा समुल्लास के कुछ अंश

*सांवत्सरिकमाप्तैश्च राष्ट्रादाहारयेद् बलिम्। *
*स्याच्चाम्‍नायपरो लोके वर्त्तेत पितृवन्नृषु॥1॥ *

*अध्यक्षान् विविधान् कुर्यात् तत्र तत्र विपश्चितः। *
*तेऽस्य सर्वाण्यवेक्षेरन्नृणां कार्याणि कुर्वताम्॥2॥ *

*आवृत्तानां गुरुकुलाद् विप्राणां पूजको भवेत्। *
*नृपाणामक्षयो ह्येष निधिर्ब्राह्मो विधीयते॥3॥ *

*समोत्तमाधमै राजा त्वाहूतः पालयन् प्रजाः। *
*न निवर्तेत संग्रामात् क्षात्रं धर्मम् अनुस्मरन्॥4॥ *

*आहवेषु मिथोऽन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः। *
*युध्यमानाः परं शक्त्या स्वर्गं यान्त्यपराङ्मुखाः॥5॥ *

*न च हन्यात् स्थलारूढं न क्लीबं न कृताञ्जलिम्। *
*न मुक्तकेशं नासीनं न तवास्मीति वादिनम्॥6॥ *

*न सुप्तं न विसन्नाहं न नग्नं न निरायुधम्। *
*नायुध्यमानं पश्यन्तं न परेण समागतम्॥7॥ *

*नायुधव्यसनं प्राप्तं नार्त्तं नातिपरिक्षतम्। *
*न भीतं न परावृत्तं सतां धर्ममनुस्मरन्॥8॥ *

*यस्तु भीतः परावृत्तः सङ्ग्रामे हन्यते परैः। *
*भर्त्तुर्यद् दुष्कृतं किञ्चित्तत्सर्वं प्रतिपद्यते॥9॥ *

*यच्चास्य सुकृतं किञ्चिदमुत्रार्थमुपार्जितम्। *
*भर्त्ता तत्सर्वमादत्ते परावृत्तहतस्य तु॥10॥ *

*रथाश्वं हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं पशून् स्त्रियः। *
*सर्वद्रव्याणि कुप्यं च यो यज्जयति तस्य तत्॥11॥ *

*राज्ञश्च दद्युरुद्धारमित्येषा वैदिकी श्रुतिः। *
*राज्ञा च सर्वयोधेभ्यो दातव्यमपृथग्जितम्॥12॥मनु॰॥ *

प्रजा से वार्षिक कर आप्तपुरुषों के द्वारा ग्रहण करे और सभापतिरूप राजा आदि प्रधान पुरुष हैं वे सब तथा सभा वेदानुकूल होकर प्रजा के साथ पिता के समान वर्तें॥1॥ 

उस राज्यकार्य में विविध प्रकार के विद्वान् अध्यक्षों को सभा नियत करे, इन का यही काम है जितने-जितने जिस-जिस काम में राजपुरुष हों वे नियमानुसार वर्त्त कर यथावत् काम करते हैं वा नहीं, जो यथावत् करें तो उनका सत्कार और जो विरुद्ध करें तो उन को यथावत् दण्ड किया करें॥2॥ 

सदा जो राजाओं का वेद प्रचार रूप अक्षय कोष है उस के प्रचार के लिये जो कोई यथावत् ब्रह्मचर्य से वेदादि शास्त्रों को पढ़कर गुरुकुल से आवे उस का सत्कार राजा और सभा यथावत् करें तथा उन का भी जिन के पढ़ाये हुए विद्वान् होवें। इस बात के करने से राज्य में विद्या की उन्नति होकर अत्यन्त उन्नति होती है॥3॥ 

जब कभी प्रजा का पालन करने वाले राजा को कोई अपने से छोटा, तुल्य और उत्तम संग्राम में आह्नान करे तो क्षत्रियों के धर्म का स्मरण करके संग्राम में जाने से कभी निवृत्त न हो अर्थात् बड़ी चतुराई के साथ उनसे युद्ध करे जिस से अपना ही विजय हो॥4॥ 

जो संग्रामों में एक दूसरे को हनन करने की इच्छा करते हुए राजा लोग जितना अपना सामर्थ्य हो विना डर पीठ न दिखा युद्ध करते हैं वे सुख को प्राप्त होते हैं इस से विमुख कभी न हो, *किन्तु कभी-कभी शत्रु को जीतने के लिये उन के सामने से छिप जाना उचित है क्योंकि जिस प्रकार से शत्रु को जीत सके वैसे काम करे। जैसा सिंह क्रोध में सामने आकर शस्त्राग्नि में शीघ्र भस्म हो जाता है वैसे मूर्खता से नष्ट भ्रष्ट न हो जावें*॥5॥ 

युद्ध समय में न इधर-उधर खड़े, न नपुंसक, न हाथ जोड़े हुए, न जिस के शिर के बाल खुल गये हों, न बैठे हुए, न ‘मैं तेरे शरण हूं’ ऐसे को॥6॥ 

न सोते हुए, न मूर्छा को प्राप्त हुए, न नग्न हुए, न आयुध से रहित, न युद्ध करते हुओं को देखने वालों, न शत्रु के साथी॥7॥ 

न आयुध के प्रहार से पीड़ा को प्राप्त हुए, न दुःखी, न अत्यन्त घायल, न डरे हुए और न पलायन करते हुए पुरुष को, सत्पुरुषों के धर्म का स्मरण करते हुए, योद्धा लोग कभी मारें किन्तु उन को पकड़ के जो अच्छे हों बन्दीगृह में रख दे और भोजन आच्छादन यथावत् देवे और जो घायल हुए हों उन की औषधादि विधिपूर्वक करे। न उन को चिड़ावे न दुःख देवे। जो उन के योग्य काम हो करावे। *विशेष इस पर ध्यान रक्खे कि स्त्री, बालक, वृद्ध और आतुर तथा शोकयुक्त पुरुषों पर शस्त्र कभी न चलावे। उनके लड़के-बालों को अपने सन्तानवत् पाले और स्त्रियों को भी पाले। उन को अपनी माँ बहिन और कन्या के समान समझे, कभी विषयासक्ति की दृष्टि से भी न देखे।* जब राज्य अच्छे प्रकार जम जाय और जिन में पुनः पुनः युद्ध करने की शङ्का न हो उन को सत्कारपूर्वक छोड़ कर अपने-अपने घर व देश को भेज देवे और जिन से भविष्यत् काल में विघ्न होना सम्भव हो उन को सदा कारागार में रक्खे॥8॥ 

और जो पलायन अर्थात् भागे और डरा हुआ भृत्य शत्रुओं से मारा जाय वह उस स्वामी के अपराध को प्राप्त होकर दण्डनीय होवे॥9॥ 

और जो उस की प्रतिष्ठा है जिस से इस लोक और परलोक में सुख होने वाला था उस को उस का स्वामी ले लेता है, जो भागा हुआ मारा जाय उस को कुछ भी सुख नहीं होता, उस का पुण्यफल सब नष्ट हो जाता है और उस प्रतिष्ठा को वह प्राप्त हो जिस ने धर्म से यथावत् युद्ध किया हो॥10॥ 

इस व्यवस्था को कभी न तोड़े कि जो-जो लड़ाई में जिस-जिस भृत्य वा अध्यक्ष ने रथ घोड़े, हाथी, छत्र, धन-धान्य, गाय आदि पशु और स्त्रियां तथा अन्य प्रकार के सब द्रव्य और घी, तेल आदि के कुप्पे जीते हों वही उस-उस का ग्रहण करे॥11॥ 

परन्तु सेनास्थ जन भी उन जीते हुए पदार्थों में से सोलहवां भाग राजा को देवें और राजा भी सेनास्थ योद्धाओं को उस धन में से, जो सब ने मिल के जीता है, सोलहवां भाग देवे और जो कोई युद्ध में मर गया हो उस की स्त्री और सन्तान को उस का भाग देवे और उस की स्त्री तथा असमर्थ लड़कों का यथावत् पालन करे। जब उसके लड़के समर्थ हो जायें तब उनको यथायोग्य अधिकार देवे। *जो कोई अपने राज्य की रक्षा, वृद्धि, प्रतिष्ठा, विजय और आनन्दवृद्धि की इच्छा रखता हो वह इस मर्यादा का उल्लंघन कभी न करे*॥12॥ 

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