Monday, August 29, 2016

इंडियन व्यवस्था के हिन्दू विरोधी निर्णयों को नकारने की आवश्यकता क्यों ?

।। मटकी प्रकरण ।।

आये दिन कई विषयों पर इंडियन शासकों, प्रशासकों व न्यायाधीशों के धार्मिक आधार पर हिन्दू विरोधी दोहरे मानदंड सामने आते रहते हैं। एक अभी आया जिसमें इंडिया के सर्वोच्च न्यायालय ने मटकी फोडने वाले बच्चों की आयु 18वर्ष तय कर दी।अब यदि थोड़ी और हिम्मत दिखा कर सर्वोच्च न्यायालय इस्लामिक "खतना" की उमर भी बता देता तो उसके निर्णय पर आपत्ति न उठी होती। खतना में छोटे-छोटे बच्चों को बहुत दर्द होता है। रक्तस्राव, संक्रमण और कई बार तो छोटे बच्चों की मौत भी हो जाती है।

कोर्ट को मटकी तो दिखी लेकिन वे बच्चे नहीं दिखते जो मोहर्रम के नाम पर रक्तरंजित हो जाते हैं, कोर्ट को सांडो की लड़ाई का खेल जलीकट्टू तो दिखता है, जिसपर वो प्रतिबंध लगा देता है, लेकिन कत्लखाने नहीं दिखते, अल्लाह की बलि के नाम पर कटते पशु नहीं दिखते ? इंडियन कोर्ट अगर शनि सिंगनापुर और अन्य मन्दिरों की परम्पराओं में हस्तक्षेप करते समय हाजी अली दरगाह की परम्परा व मस्जिदों में भी हस्तक्षेप करती तो विश्वसनीयता बरकरार रहती ।

अब जब न्याय भी धर्म को देख कर होगा तो हिन्दू जनता भी विद्रोह पर मजबूर होगी .

यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि जनता और उस का मत ही सर्वोपरी है , वही तख्त पर बिठाती है और वही कुचल भी डालती है। महाराष्ट्र के मटकी प्रकरण में अदालत के प्रतिबंध को में मानव समाज की "सहज चेतना" के विरूद्ध मानता हूँ। क्योंकि, प्रकृति के साथ मानव जीवन की "प्रतिस्पर्धा" जन्मगत है। हिमालय की ऊंचाई हो या फिर सागर की अतल गहराई ! प्रकृति की चुनौती को मानव ने हमेशा स्वीकार किया है.!! यही वजह है कि, एडमण्ड हिलेरी या शेरपा तेजिनग अपनी राष्ट्रीयता के बाहर निकल मानव समाज के नायक बने.!!!

अब जब अदालत ने 35 फुट की पाबन्दी लगा दी है तो, सीधे तौर पर मानव के अदम्य साहस और जिजीविषा को प्रतिबंधित कर दिया है..!!! और अदालत का यह कदम मानवीय नहीं बल्कि मानव समाज के साहस उत्साह को रोकने का अदालती कुचक्र है।

इसका दूसरा पक्ष और भी घृणित है। जैसे-जैसे चुनौती बड़ी होती है... मानव समाज एकजुट होता है। और यह भावना विदेशी आक्रमण या बाढ़, सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदा के समय शक्ति के साथ दिखाई देती है। ऐसे समय मानव समाज जाति, आस्था और तमाम दूसरे फर्क को मिटाकर कर एकजुट हो जाता है। और इस तरह की घटनाओं से ही समाज के अनन्य साहसी शिवाजी- चन्द्रशेखर आजाद जैसे वास्तविक नायक उभरते हेँ।

भारत के ऐसे आयोजन हिन्दू समाज को जाति से मुक्त कर एकजुट करते हेँ। यह समाज की प्रतिस्पर्धा है ! जिजीविषा की प्रतिस्पर्धा है! और इसके "नियम" हर मानव समाज अपने गठन के साथ लेकर पैदा हुआ है। यह किसी "संविधान" का मोहताज नहीं है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पवित्र पर्व पर पक्षपात की हांडी फोड़कर व्यवस्था परिवर्तन की सार्थक पहल करने वाले नन्हें बच्चों व भाई- बहनों को बहुत- बहुत हार्दिक बधाई।

।। विवाह ।।

विवाह की आयु को लेकर दोहरे मापदंड:-

अब बात इंडियन व्यवस्था में विवाह की आयु को लेकर दोहरे मापदंड पर, जिस को लेकर बहुत बार विवाद होते रहते है। हाल ही में देश के युवाओं में विवाह की आयु को लेकर हिन्दू पंचायतों ने एक प्रस्ताव, जिसमें ‘‘16 वर्ष लड़की एवं 18 वर्ष लड़के की आयु में सहमति से विवाह को वैध बनाने की मांग’’ है। ध्यान देने वाली बात है कि केवल सुझाव ही दिया है, कोई आदेश नहीं सुनाया ! जिस पर शासकों, प्रशासकों, बुद्धिजीवीयों व कोर्ट सभी ने विरोध जता दिया। तनिक ध्यान दे तो विरोध करने वालो का दोहरा व्यवहार समझ में आ जायेगा।

बिना विवाह किये ‘‘लीव-इन-रिलेशनशिप" के अवैध शारीरिक सम्बन्धों को वैधानिकता प्रदान करने वाले व रखैल संस्कृति के समर्थको और हिन्दू पंचायतो के 16-18 वर्ष में विवाह की न्यूनतम सीमा तय करने के सुझाव को नकारने वालो को क्या यह नहीं सोचना चाहिए कि देश का भविष्य कहलाने वाले युवा अब इतने कमजोर नहीं रहे। वे हर मुसीबत का सामना करने में सक्षम है! जन्म से लेकर मृत्यू तक अपार प्रेम करने वाले माता- पिता को जो धोखा दे सकते है! इसी बाली ऊमर में क्षणिक उन्माद में पैदा हुए प्यार के लिए घर छोड़कर भाग सकते है! मॉं बापू के निस्वार्थ अथाह प्यार को भूलकर एक ऐसे इन्सान से प्रेम विवाह कर बैठते है जिससे वो अभी-अभी मिले है! उसके सामने अपने मॉ बाप को तुच्छ, मुर्ख समझते है! ये सोचते है कि मां-बाप उनके प्यार को कभी नहीं समझ सकते! जो ये भी सोचते नहीं की जन्मदाताओं पर क्या बीतेगी, और अपना स्वयं का अलग घर बसा लेते है ! उनकी उसी स्वेच्छा में यदि समाज की स्वीकृति जुड़ जाये तो उसमें आपत्ती क्या है?’’

जरा अतीत में क्या है देखें!

थोड़ा याद करें तो कुछ वर्ष पूर्व का मामला है, इसी इंडियन व्यवस्था के महिला एवं बाल विकास विभाग की मुखिया ‘‘कृष्णा तीरथ’’ एक बिल बनाने में व्यस्त थी। उनकी योजना यह थी कि 13 वर्ष के नाबालिको को सहमती से सेक्स करने की इजाजत दे दी जाये। चुंकि वैसे भी इस उम्र के बाद युवा इस तरह के मामलो में लिप्त पाये जा रहे है। तो उनका सोचना भी उनके खुद की नजर में शायद उचित हो पर इस मुद्दे पर पूरे देशभर में कटु प्रतिक्रिया हुई। परिणाम स्वरूप इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। अरे भाई जब नाबालिक आयु में सेक्स की स्वीकृति के बारे में सोचा जा सकता है तो फिर हिन्दू पंचायतों के सुझाव में ‘‘कम उम्र में विवाह‘‘ से आपत्ति क्यों है? सोचिए!

अब बात हिन्दू पंचायतों के सुझावों की:-

हिन्दू पंचायतों ने शादी की उम्र कम करने का जैसे ही सुझाव दिया तो सरकारी नुमाइंदो की भोहे तन गई है! देश के बहुत से बुद्धिजीवी इस बात का घोर विरोध करते नजर आये! कुछ लोग तो सिर्फ टीवी पर दिखने मात्र के लिए हिन्दू पंचायतों को खरी-खोटी सुनाते नजर आए! तो कुछ लोगो के पास तर्क-वितर्क भी मौजूद है। विरोध करने के लिए वे एक शब्द का बहुत जिक्र करते है बालिकाओं की कम उम्र में पायी जाने वाली ‘‘बायोलॉजिकल और मानसिक स्थिति’’।

बायोलॉजिकल परेशानियाँ:-

18 वर्ष की उम्र में शादी-बंधन वाला कानून जिस समय लागू किया गया था। उस समय परिस्थितियां निश्चित ही कुछ अलग रही होंगी। जैसे कि सुनने में आया है कि उस समय लड़कियों के ‘‘मासिक धर्म’’ 16 वर्ष की आयु में शुरू होते थे। दूसरा उस समय की तकनीकी इतनी विकसित नहीं थी जिससे जानकारियों का अभाव होने से समझदारी थोड़ी देरी से विकसित होती होगी। परन्तु अभी तो कक्षा 4 के बच्चों में भी देश और दुनिया की जानकारी आपसे-हमसे अधिक ही बैठेगी। उन्हे प्यार करना, रोमांस करना, सेक्स करना, शादी करना, तलाक लेना, सास- ससुर से निपटना सब कुछ हमारे घर में रखा हुआ टेलीवीजन व जेब में रखा हुआ मोबाइल फोन सब कुछ सिखा देता है। ऊपर से इन्टरनेट की उपलब्धता।

मेरी बात कुछ लोगो को शायद चुभ भी जाए लेकिन टीवी- मोबाइल पर देखे कार्यक्रमों की नकल कर-करके घरों में कई चीजों के ‘‘प्रेक्टिकल’’ आपके बच्चे कर चुके होते है, आप और हमें तो हवा भी नहीं लगती!

मुस्लिम समाज में उसी बाली ऊमर में शादी को हमारी ही इंडियन कानून व्यवस्था मान्यता देती है! उसका क्या? क्या मुसलमान मानव नहीं होते? क्या उनके धर्म की लड़कियों को बायोलॉजिकल परेशानी नहीं होती? ये भारत जैसे पंथनिरपेक्ष देश में ऐसा भेदभाव क्यों ? क्या यहीं है सेक्युरिज्म ? या हम हिन्दुओं को मूर्ख बनाया जा रहा हैं ?

कुछ काम के प्रयोग जो मीडिया वाले दिखाते और वैज्ञानिक करते रहते है!

आजकल दिन प्रतिदिन देश में बिना किसी कारण के कई सर्वे होते रहते है। बालिगो-नाबालिगो के सेक्स जीवन पर भी कई सर्वे हुए। अगर उनकी फाईनल ड्राफ्टिंग देखी जाए तो अधिकतर का निष्कर्ष यही मिलता है कि हमारे युवा 18 वर्ष की दहलीज पर आते-आते 1 से अधिक साथियों या एक ही साथी के साथ कई बार ‘‘सेक्स’’ का आनंद ले चुके होते है। अब फिर वही सवाल जब अपनी मर्जी से इतना सेक्स कर ही चुके है तो शादी करके सेक्स करने में क्या आपत्ति है?

यथार्थ विषय !

मेरे हृदय में एक प्रश्न यह भी उठता है जिन बालिकाओं को 13 वर्ष की नाबालिग उम्र में सेक्स करने की अनुमती देने की बात सरकार सोच सकती है। उन बालिकाओं को 16 वर्ष की बाली ऊमर में शादी के बाद सेक्स करने देने में क्या आपत्ति है? शादी के बाद शारीरिक सम्बंधो के अलावा ऐसा होता क्या है जिससे उन्हे शादी से रोका जाए? मित्रों,ये तो विचित्र बात हुई कि चाहे जितना मन मर्जी कम उम्र में सेक्स के मजे तो लेते रहो, शादी के बंधन में में बंधकर जीवन जीना वर्जित है।

एक बाली ऊमर वाली कन्या का उदाहरणः-

एक लड़की जिसकी आयु लगभग 14 वर्ष रही होगी। वह मोहल्ले में ऐसे रहती थी जैसे उसने किसी लड़के को आंख उठाकर भी नहीं होगा। मेरे सामने तो वह शर्म से छुप जाती थी। वह कहां और कैसे अपने मित्र के साथ छुप-छुपकर शारीरिक सम्बंध बनाते हुए प्रेग्नेंट हो गयी, वही जाने। जब बात खुली तो उसने बताया कि उसके सम्बंध बहुत पुराने है। उस लड़की की माँ जिसे उसके चारित्रिक गुणों पर गर्व था, जो हमेशा उसका मोहल्ले भर में गुनगान करती थी। वह जानकर स्तब्ध रह गई कि उसकी बेटी ने छुपकर मंदिर में विवाह कर लिया था! अपने नाबालिक मित्र से! और ना जाने कितनी ही बार सुहागरात मना चुकी थी! और आश्चर्य की बात तो यह है कि उसे ऐसा करते हुए कोई बायोलॉजिकल परेशानी नहीं आयी। अब कहां गया बाली ऊमर का कानून? अंत में वो मां अपने अपनी बेटी की ऐसी हरकत पति को भी नहीं बता पाई और गुपचुप उसके गर्भ की सफाई करवा दी।

इसके आगे आप समझ गये होगे कि उस माँ के दिल पर अपनी बेटी को लेकर क्या बीती होगी। अधिक लिखने से उस बेचारी के लिए मुसिबत भी आ सकती है। क्योंकि अब वह लड़की बालिग हो चुकी है और अब समाज की मर्जी से शादी करना चाहती है। नाबालिक अवस्था में सहमती सेक्स करने वाले हमारे नाबालिको की स्थिति जब प्रेग्नेंसी तक पहुंचती है। तो बात उसके स्वयं के और पालको के गले में फस जाती है। बात समाज की, इज्जत की और उम्र की आ जाती है। न चाहते हुए भी वे एक और अपराध कहे या पाप वह भी करने हेतु विवश हो जाते हैं। सामाजिक अपयश से बचने के लिए ‘बच्चा’ परिवार की सहमति से गिरा दिया जाता है। एक नवजीवन की हत्या कर दी जाती है।

अन्त में समाधान:-

परिस्थितियों व मानव की मानसिकता को यदि देखा जाये तो हिन्दू पंचायतों का सुझाव सार्थक व अनुक्रणीय हैं। हिन्दू समाज को उसे मुक्त हृदय से स्वीकार करना चाहिए। विवाह की आयु 18 एवं 16 वर्ष करके विवाह करना या न करना ये युवाओं के विवेक पर छोड़ देना चाहिए। हाँ एक प्रतिबंध अवश्य लगाया जाए कि 18 वर्ष की आयु से पहले वे बच्चा पैदा न करें। कन्या को शादी के बाद भी पूरी स्वतंत्रता दी जाये। कन्या की पढ़ाई अनिवार्य कर दी जाए चाहे वह मायके में रहे या ससुराल में। क्योंकि वह आपके भरोसे इस दुनियां में आ रही है तो उसकी पालन- पोषण, शिक्षा और सुरक्षा की जिम्मेदारी हमारी है।

बातें संविधान की:-

वो लोग जो संविधान को लेकर हिन्दू समाज का शोषण व दमन करते रहते है, वे जान ले कि संविधान कोई ऐसी ईश्वरीय पुस्तक नहीं है, जो दोबारा से न लिखी जा सके। ब्रिटिश अंग्रेजों ने अपनी आवश्यकता अनुसार इंडियन संविधान लिखा, सत्ता-हस्तांतरण के बाद अंग्रेजों के अनुयायियों ने उसी इंडियन संविधान को थोड़ा- बहुत बदलाव के साथ भारत पर लागू कर दिया। बाद में इंदिरा- राजीव, चन्द्रशेखर, वाजपेयी जैसे लोग अपने हितों के हिसाब से संविधान में बदलाव करते रहें, जैसे अभी प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जी कर रहे है, भूमि अधिकरण कर रहे है तो संविधान बदल रहे हैं, देश में विदेशी कम्पनीयों को बुला रहे हैं, 100% विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को स्वीकृति दे रहे है तो संविधान बदल रहे हैं।

जब निजी हितों- नीतियों के लिए संविधान बदला जा सकता है, तो हिन्दू हितों के लिए भी संविधान बदला जाना चाहिये।

हिन्दुओं की धार्मिक व सांस्कृतिक मान्यताओं को लेकर विश्व के किसी भी देश के संविधान के आदेश को मानने के लिएहिन्दुओं को विवश नहीं किया जा सकता, क्योंकि सभी देशों के संविधान साम्राज्यवादी शक्तियों ने अपने हितों के अनुसार लिखे हैं।

जो लोग संविधान के नाम पर हिन्दू समाज की आस्थाओं को प्रतिबंधित करने का दु:साहस करते है। "मानवीय" होने का नकाब पहनकर भारत की सांस्कृतिक चेतना का "बलात्कार" करते है। उनके निर्णय "हिन्दू विरोधी" ही नहीं, वे "मानवता" के अभियान को दूषित करने के "अपराधी" भी है। ऐसे लोगो के हिन्दू विरोधी निर्णयों को कूड़ेदान में डालना ही होगा। यही धर्म है, यही हमारा दायित्व है।

आपका भाई
विश्वजीत सिंह अनन्त
राष्ट्रीय अध्यक्ष
भारत स्वाभिमान दल

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