1857 की क्रांति के पश्चात अंग्रेजों ने भारत के लिए 1858 का भारत शासन अधिनियम लागू किया। इसके बाद 1861 में भारत परिषद् अधिनियम, 1892 में भारत परिषद् अधिनियम, 1909 में मार्लेमिंटो सुधार और भारतीय परिषद् अधिनियम, 1919 में भारत सरकार अधिनियम, और 1935 में पुनः भारत शासन अधिनियम, कुल छह अधिनियम लागू किये। दूसरे शब्दों में 1858 से 1935 तक के 77 वर्षों में लगभग हर साढ़े 12 वर्षों के अंतराल पर अंग्रेजों को भारत में नया अधिनियम लागू करना पड़ा।
इसके अतिरिक्त भारत में अपने शासन की नींव को मजबूत करने के लिए उन्हें इस देश में भारतीय दण्ड संहिता सहित कितने ही अन्य कानून भी लागू करने पड़े। ये वही अंग्रेज थे जिनके विषय में यहां कुछ लोग कहते नहीं अघाते कि, अंग्रेजो ने ही हमें सभ्यता सिखाई और उनका दिमाग कानून का पुतला होता था।
यदि, ऐसा था तो उन्हें देश में लगभग हर साढ़े 12 वर्ष बाद नया संविधान क्यों लागू करना पड़ा? वस्तुतः अंग्रेज अपनी सुविधा के लिए देश में नया कानून लाते थे। उन्होंने इस देश की सुविधा के लिए तथा शासन को जनोन्मुखी बनाने के लिए कभी कोई कानून नहीं बनाया।
1860 की भारतीय दण्ड संहिता को ही आप लें, जिसे हम आज तक लागू किये हुए हैं, और हम इस संहिता को अंग्रेजों के उपकार के रूप में देखते हैं।
परंतु कभी यह नहीं सोचा कि, ये संहिता देश में लागू क्यों की गयी?? 1857 की क्रांति में जिन असंख्य लोगों ने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष किया था, उन्हें भारत की तत्कालीन न्याय प्रणाली और न्यायाधीश देशभक्त मान रहे थे।
इसलिए वो लोग तत्कालीन न्याय प्रणाली की सजा के नहीं, अपितु पुरस्कार के पात्र थे।
......तब अंग्रेजों ने अपना कानून, अपनी न्याय व्यवस्था और अपने न्यायाधीश बैठाकर इन देश भक्तों को फांसी तक पहुँचाने के लिए भारतीय दण्ड संहिता लागू की।
........अंग्रेजों ने कानून भारत पर शासन करने के लिये बनाये थे ना कि, भारत के उद्धार के लिये। लेकिन, उन अंग्रेजी कानूनों को हम आज भी लादे फिर रहे है।
जरा ध्यान करें 15 अगस्त 1947 की उस रात को, देश गोरे अंग्रेजों की साजिश के अनुसार भारत देश तीन हिस्सों मे बँट गया था। यह बँटवारा हिन्दु और मुसलमान के नाम पर हुआ था। पश्चिमी तथा पूर्वी पाकिस्तान मुसलमानों के लिये और शेष भारत हिन्दू के लिये। लगभग ऐसा सोचना हर भारतीय का था।
जनसंख्या स्थानान्तरण दंगे का रूप लेता जा रहा था। पाकिस्तान से हिन्दु लगभग खदेड़ दिये गये थे। वहीं भारत से मुसलमानों के स्थानान्तरण को सेक्युलरों के पिता मोहनदास गांधी ने अपनी मुस्लिम प्रस्ती के चलते रोक दिया था। लंपट, नास्तिक व हिंदू द्रोही जवाहर लाल नेहरू लाल किले पर झण्ड़ा फहराने में लगा थे।
.....इस धमाचैकड़ी में पाकिस्तान मुसलमानों का खैर ख्वाह बनकर उभरा और भारत देश ‘सैक्युलर’ हो गया।
नेहरू और गांधी के कारण आजादी से पहले पूरे देश के चाहने के बावजूद वन्दे मातरम् को खण्ड़ित कर दिया गया, फिर, ‘भगवा’ को ‘तिरंगा’ बना दिया गया। आजादी से पहले इन लोगों ने जिस तरह से हिन्दू को दोयम दर्जे का नागरिक बनाया था उससे ज्यादा बदतर हालत आजादी के बाद हिन्दू की हो गयी।
जैसे यह देश हिन्दुओं का न होकर एक धर्मशाला जैसा हो गया। कोई भी आये, रहे और बर्बाद करके चला जाये।
आज हिन्दू की बात करने वाला साम्प्रदायिक कहलाता है और मुसलमानो की बात करने वाला धर्मनिरपेक्ष।
इसलिये जो आरक्षण जातियों के उत्थान के लिये निश्चित किया गया था आज उस आरक्षण के दायरे में मुसलमान भी आ रहा हैं यह हिन्दू अधिकारों पर कुठाराघात है ऐसा कोई नहीं मानता।
मुसलमान आतंकवादी नहीं है लेकिन हर आतंकवाद की घटना में मुसलमान पकड़ा जाता है’’ यह सर्वप्रचलित कथन था इससे छुटकारा पाने के लिये नेहरू-गांधी के अनुयायियों ने हिन्दुओं को भी साजिशन आतंकवादी बना दिया है। कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों ने तो इससे आगे बढ़कर आतंकवादियों की पैरवी भी करनी शुरू कर दी है।
तो कुछ सरकारों ने उन्हे जेल से छुड़वाने के तंत्र पर भी काम करना शुरू कर दिया है। आजादी से पहले यह काम इसलिये हो रहा था कि, मुसलमान आजादी की लड़ाई छोड़ कर अंग्रेजों के हाथ का खिलौना न बन जायें, जो वे बने रहे।
अब यह इसलिये हो रहा है कि, कहीं हम चुनाव न हार जायें।
इस सारी धमा चैकड़ी में नुकसान तो उस हिन्दु का हो रहा है जो आजादी की लड़ाई में ईमानदारी से इसलिये अपनी कुर्बानी दे रहा था कि, चलो आजादी के बाद उसके साथ अच्छा सलूक होगा। लेकिन आजादी के बाद आज वह पुनः वहीं खड़ा है जहाँ वह 7वीं सदी में मोहम्मद बिन कासिम के साथ लड़ाई के मैदान मे खड़ा था।
मित्रों कही यह धर्मनिरपेक्षता पुनः एक और पाकिस्तान को जन्म न दे दे।
इतना ही नहीं हुआ अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति को भी हमारे नियंताओं ने वैसे ही अपना लिया। राज्यों का विभाजन भाषा के आधार पर किया और देश को जोड़ने के नाम पर अंग्रेजी को राज भाषा बना दिया जबकि, कहने को हिन्दी राजभाषा है।
उद्देष्य साफ-साफ गोरे अंग्रेजों के उत्तराधिकारी काले अंग्रेजों की सत्ता बरकरार रखना था।
आज न चाहते हुये भी न्यायालय से लेकर आधुनिक शिक्षा तक में अंग्रेजी का प्रभुत्व है।
अंग्रेजी बोलने वाला आज समझदार माना जाता है और भारतीय भाषाओं में बात करने वाला गँवार। क्या इसे स्वतंत्रता कहेंगें जिसमें ‘स्व’ का अभिमान ही नहीं।
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