Saturday, August 6, 2016

नाड़ा" और "पाज़ामा

"नाड़ा" और "पाज़ामा"!
अगर पज़ामें में नाड़ा न हो तो, वह पज़ामा, इंसान को कहीं भी नंगा होने के लिये बाध्य कर सकता है? यही हाल हिन्दुओं का है, हिन्दुओं ने सनातन का पज़ामा तो पहन लिया है कि वे ही सनातनी भी है, पर उस पज़ामें में सनातन का नाड़ा नहीं है!
वह नाड़ा कहीं खो गया है!
सत्य सनातन में मात्र चार वर्ण थे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र। चारो समाज़ के अविभाज्य अंग थे, एक दूसरे के सम्मानीय थे।
ज्ञान सत्ता पर ब्राह्मणों (द्विजों) का वर्चस्व इसलिये था कि वे ही ज्ञान का दान करके मानव को मानव बनने की शिक्षा देते थे, इसीलिये पूजित भी थे! पर, हिन्दुत्व का ब्राह्मण वेदपाठी न होकर पुजा-पाठी बन गया और इहलोक से परलोक तक का ठेकेदार बन गया?
सत्य सनातनी क्षत्रिय सामाजिक समरसता का रक्षक था, पर हिन्दुत्व का क्षत्रिय सत्ता और पद का भोक्ता बन गया?
सत्य सनातनी वैश्य, सामाजिक जरुरतों का सत्यनिष्ठ मूल्य-आधारित पुर्तिकर्ता था, पर हिन्दुत्व का वैश्य फ़ायदे- और-लाभों का अर्जित करने का चालक व स्वार्थी वर्ग बन गया?
सत्य सनातनी शुद्र सामाज को अपनी सेवा से लाभांवित करने वाला समुदाय था, जो हिन्दुत्व की अवधारणा में न जाने कब अछूत भी बन गया, शोषित व पीड़ित भी बना दिया गया?
फ़िर भी, हिन्दुओं ने अपने को सनातन
का उत्तराधिकारी मान रखा है?
जाहिर है, ऐसे में अधर्मियों के समुदाय को अपनी मनमानी करने का मौका मिला और उन्होंने अमुक-अमुक धर्म नाम की संस्था बना कर अपनी अधर्मिता को स्वीकार्य बनाने की कवायद में लग गये!
ऐसे में अगर "मानवता" नाम का नाड़ा कहीं खो गया तो इसमें नाड़े की भी उतनी ही गलती है?
कोई है जो इस "नाड़े" को वापस "पज़ामें" में डाल सके?

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